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________________ सुघाटीका स्था०३३२०सू० ३२ धर्मविशेषप्रतिपत्तिनिरूपणम् १३ छाया - ' त्रिभिर्यामैरात्मा केवलां बोधिं बुध्यते, त्रिभिर्या मैरात्मामुण्डो भूत्वा आगाराद् अनगारितां प्रव्रजति, त्रिभिर्यामैरात्मा ब्रह्मचर्यवासमायसति, एवं त्रिभिर्यामैरात्मा संयमेन संयच्छति, त्रिभिर्या में रात्मा संवरेण संहृणुयात्, त्रिभिर्या मैरात्माऽऽभिनिवोधिक ज्ञानमुत्पादयति, एवं त्रिभिर्या मैरात्मा श्रुतज्ञानम्, अवधिज्ञानं, मनः पर्यवज्ञानमुत्पादयति, त्रिभिरात्मा' इति, 'केवलां बोधिं' इत्यारभ्य यावत् केवलज्ञानमुत्पादयति । तान् यामानाह - प्रथमो यामः, मध्यमो यामः, पश्चिमो याम इति । यथा काल विशेषे धर्मप्रतिपत्तिर्भवति तथा वयोविशेषेऽपीति तत्र धर्म प्रतिपत्ती राह-' तओ वया' इत्यादि सुगमं, नवरं प्राणिनां कालकृतावस्था वय इत्युच्यते, तद् प्रथममध्यम- पश्चिमभेदात्रिविधम् । तत्र प्रथमं वयो बालत्वं, मध्यमवयो यौवनं, पश्चिम वृद्धत्वमिति, तल्लक्षणं चेदम् " डेज्जा, एवं तीहिं जामेहिं आपा सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा, तीहि जामेहिं आया इस पाठ का संग्रह हुआ है। तात्पर्य इस पाठ का ऐसा है कि आत्मा तीन यामों में केवलबोधि को, मुंडित होकर अगारावस्था से अनगारोवस्था को, ब्रह्मचर्यव्रत को, संयम को, संवर को, आभिनियोधिक ज्ञान को, श्रुतज्ञान को, अवधिज्ञान को, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान को उत्पन्न करता है । जिस प्रकार से कालविशेष में जीव को धर्म की प्रतिपत्ति होती है, उसी प्रकारसे अवस्थाविशेष में भी उसे धर्मकी प्रतिपत्ति प्राप्ति होती है इसी बात को प्रकट करने के लिये सूत्रकार ने "तओ क्या " इत्यादि सूत्र कहा है- प्राणियों में जो कालकृत अवस्था होती है उसी का नाम वय है बाल्य अवस्थारूप प्रथम वय, यौवन अवस्थारूप मध्यम वय आया आभिणिबोहियनाणं उपाडेज्जा, एवं तीहि जामेहिं आया सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा, तोहि जामेहिं आया " मा अथननो लावार्थं નીચે પ્રમાણે છે-આત્મા ત્રણ યામેામાં શુદ્ધાધિને પામી શકે છે, આગારાવસ્થાના ત્યાગપૂર્વક અણુમારાવસ્થા અગીકાર કરે છે, બ્રહ્મચર્યવ્રત, સયમ, संपर, आलिनिमोधिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अने ठेवण. જ્ઞાનને ઉત્પન્ન કરી શકે છે. જેમ કાળવિશેષમાં જીવને ધર્મની પ્રતિપત્તિ થાય છે, એજ પ્રમાણે તેને અવસ્થાવિશેષમાં પશુ ધર્મની પ્રતિપત્તિ થાય છે. એજ पातने सूत्रारे " तओ क्या " त्याहि सूत्र द्वारा अष्ट हरी छे. भवभां જે કાળકૃત અવસ્થા હોય છે તેને વય કહે છે. ખાલ્યાવસ્થારૂપ પ્રથમ વય, શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૨
SR No.006310
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages819
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size47 MB
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