SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 588
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ५७७ च्चारणादयस्तद्विवर्जकस्य 'भासाय गिसेवगस्स गुणे य' भाषाया निषेवकस्य गुणश्च, तथा भाषाया ये गुणा:-हितमितदेशकालानुरूपाऽसंदिग्धभाषणादय स्तन्निषेकस्य-ब्रुवतो नास्ति दोषः, छद्मस्थस्य बाहुल्येन मौनव्रतमेव श्रेयः, समुत्पन्न केवलज्ञानस्य भाषणमपि गुणायैवेति भावः ॥५॥ मूलम्-महत्वए पंच अणुव्वए य तहेव पंचासवसंवरे य । विरति इंह सामणियंमि पुन्ने लवावसकी समणे तिबेमि ॥६॥ छाया--महावतान् पश्चाणुव्रतांश्च तथैव पश्चानवसंवरांश्च । विरतिमिह श्रामण्ये पूर्णे लवाववष्की श्रमण इति ब्रवीमि ॥६॥ कर्कशतो (कठोरपना) होना, असभ्य (अशीष्ट) शब्दों का उच्चारण करना इत्यादि, भाषा के दोष हैं। भगवान इन सब दोषों से रहित हैं। वे भाषा के गुणों का सेवन करते हैं अर्थात् हित, मित, देशकाल के अनुरूप, असंदिग्ध वाणी बोलते हैं। इस कारण उन्हें दोष कैसे हो सकता है ! छद्मस्थ अवस्था में मौन श्रेयस्कर है किन्तु केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भाषण करना ही गुणकारी है ॥५॥ 'महब्वए पंच अणुव्धए य' इत्यादि। शब्दार्थ--'आई कमुनि गोशालकसे कहते हैं-हे गोशालक । भग. वान् महावीर 'लवावसक्की-लवावष्वष्को' घातिक कर्म से दूर हा चुके हैं । 'समणे-श्रमणः' तपश्चरणशील संयम में वर्तमान साधुओं के लिए 'पंच महन्धए-पञ्चमहाव्रतान्' प्राणातिपात विरमण आदि पांच महाઅસભ્ય (અશીષ્ટ) શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કરવું. વિગેરે ભાષાના દે છે. ભગવાન આ બધા દેશો વિનાના છે. તેઓ ભાષાના ગુણોનું સેવન કરે છે. અર્થાત્ હિત, મિત, અને દેશકાળને અનુરૂ૫, અસંદિગ્ધ વાણી બેલે છે. આ કારણે તેઓને દોષ કેવી રીતે હોઈ શકે છે? છદ્મસ્થ અવસ્થામાં મૌન ધારણ કરવું એજ શ્રેયસ્કર છે. પરંતુ કેવળજ્ઞાન ઉત્પન થાય ત્યારે ભાષણ કરવું એજ ગુણ કારક છે. ગાપા ___'महव्वयं पंच अणुव्वए य' त्या शा-3 as ! लगवान् महावीर 'लवावसको-लवावष्वष्की' पातियाभाथी छूटी गये। छे. 'समणे-श्रमणः' तपश्चरle साधुमान मारे 'पंचमहव्वए-पञ्चमहाव्रतान्' प्रातिपात विरमा विगेरे पांय महामतानु' श्री सूत्रता सूत्र : ४
SR No.006308
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages795
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy