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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ९ धर्मस्वरूपनिरूपणम् मूलम्-परऽमत्ते अन्नपाणं, ण भुंजेज कयाइ वि। परवत्थं अचेलो वि, तं विज्जं परिजाणिया॥२०॥ छाया-पराऽमत्रेऽन्नपानं, न भुजीत कदाचिदपि । परवस्त्रमचेलोऽपि, तद्विद्वान् परिजानीयात् ।।२०।। ___ अन्वयार्थ:--(परऽमत्ते) पराऽमत्रे-परस्य-गृहस्थस्थामत्रे-पात्रे (कयाइ विण मुंजेज्ज) कदाचिदपि न भुञ्जीत-आहारं न कुर्यात् (अचेलो नि) अचेलोऽपि-वनरहितोऽपि (परवत्थं) परवस्त्रं-परस्य-गृहस्थस्य वस्त्रं न विभृयात् (तं) तत् (विज्ज) त्याग न करे । बीज, आदि को हटा करके अचित्त जल से भी कदापि आचमन न करे-कुल्ला तथा शौच भी न करे ॥१९॥ 'परऽमत्ते' इत्यादि। शब्दार्थ--परमत्ते-पराऽमन्त्रे' दूसरे के पात्र में अर्थात् गृहस्थके वर्तनमें 'कयाइविण भुजेज कदाचिदपि न भुञ्जीत' साधु अन्न जल का कभी भी उपभोग न करें 'अचेलोवि-अचेलोऽपि वस्त्र रहित होने परभी 'परवत्थं-परवस्त्रं' परका अर्थात् गृहस्थके वस्त्रों को ग्रहण न करे 'तं-तत् इन बातों को 'विज्ज-विद्वान् मुनि 'परिजाणिया-परिजानी. यात्' ज्ञपरिज्ञासे संसार भ्रमणका कारणरूप समझ करके प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका त्याग करे ॥२०॥ अन्वयार्थ- साधु गृहस्थ के पात्र में कदापि आहार न करे और गृहस्थ के पात्र में वस्त्र नहीं धोवे । वस्त्र रहित होने पर भी गृहस्थ के (પેશાબ) કરવું નહીં. બીજ, લીલા ઘાસ વિગેરેને હટાવીને અથવા ઉખાડીને અચિત્ત જળથી કોઈ વાર આચમન પણ કરવું નહીં–કેગળા કરવા નહિં. ૧લા 'परऽमत्ते' त्या6ि Avat--'परऽमत्ते-पराऽमत्रे' मीना पात्रमा अर्थात स्थान पासमा 'कयाइविण भुजेज-कदाचिदपि न मुंजीत' साधु सन्न अथवा पाना ५ समये SAIN न ४३. 'अचेलो वि-अचेलोऽपि' व २हित 84 तो veg 'परवत्थं-परवस्त्र" ५।२४ना अर्थात् ७२थना सोने न दे. 'त-तत्' मा पाताने 'विज्ज-विद्वान्' विद्वान मुनि 'परिजाणिया-परिजानीयात्' परिज्ञाथी સંસાર ભ્રમણના કારણ રૂપ સમજીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી તેને ત્યાગ કરે છે અન્વયાર્થ–સાધુએ ગૃહસ્થના પાત્રમાં કદાપિ આહાર ન કરો. અને ગૃહસ્થના પાત્રમાં વસ્ત્ર ધાવા નહીં. વસ્ત્ર રહિત હોય તે પણ ગૃહસ્થના વસ્ત્રોને श्री सूत्रतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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