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________________ १८२ सूत्रकृतानसूत्र __ अन्वयार्थ (से) स वर्द्वमानस्वामी (सागरे वा) सागर इव-स्वयम्भूरमण समुद्रवत् (पन्नया) प्रज्ञया-बुद्धया (अक्खयः) अक्षयः-स्वयम्भूरमणवत् , अथवा (महोदही वाबि) महोदधिः-स्वयम्भूरमण समुद्र इवापि (अणंतपारे) अनन्तपार:-अ. पारप्रज्ञावानित्यर्थः (अणाइले वा) अनाविलो वा-निर्मलः, (अकसाई) अकषायी -कषायरहितः (मुक्के) मुक्त:-ज्ञानावरणीयाद्यष्टकर्मरहितः (सक्केव) शक्र इव-इन्द्रवत् (देवाहिवई) देवानामधिपतिः (जुहमं) द्युतिमान-अतितेजस्वी वर्द्धमानोऽस्तीति ॥८॥ टीका--(से) स भगवान् महावीरः (सागरेव) सागर इव-समुद्रवत् (पन्नया) प्रज्ञया, प्रकर्षेण ज्ञायते समस्तोऽपि पदार्थोऽनया इति प्रज्ञा तया प्रज्ञया ज्ञानेन (अक्खय) अक्षय:-क्षयरहितः, ज्ञातव्येऽर्थे जीवाजीवादिरूपे भगवतः प्रज्ञा नक्षीयते, तथा नैव प्रतिहन्यते। सा हि-तदीयबुद्धिः केवलज्ञानात्मिका, सा च कालतः साद्य अन्वयार्थ-भगवान् वर्द्धमानस्वामी प्रज्ञा से समुद्र के समान अक्षय हैं अर्थात् स्वयंभूरमण समुद्र के समान अप्रतिहत ज्ञान से सम्पन्न हैं अथवा महासागर के जैसे अनन्तपार-अनन्तप्रज्ञावान् हैं। वह निर्मल, निष्कषाय, ज्ञानावरणीय आदि कर्मों से रहित तथा इन्द्र के समान देवों के अधिपति और अत्यन्त तेजस्वी हैं ॥८॥ टीकार्थ-- 'से' इत्यादि, वह भगवान् वर्द्धमानस्वामी 'सागरेव' सागर-समुद्र के समान 'पन्नया अक्खए' प्रज्ञासे अक्षय हैं, प्रकर्षपने से समस्त पदार्थ जिसके द्वारा जाना जाय उसे प्रज्ञा कहते हैं-उस प्रज्ञासे क्षयरहित हैं, अर्थात् ज्ञातव्य-जानने योग्य जीवाजीवादिरूप अर्थ में भगवान् का ज्ञान न प्रतिहत होता है और न क्षीण होता है यथा. वस्थितस्वरूप में नित्य रहता है। वह भगवान् की प्रज्ञा केवलज्ञानरूप है સૂત્રાર્થ–ભગવાન મહાવીર સ્વામી પ્રજ્ઞામાં સમુદ્રના સમાન અક્ષમ્ય હતા, એટલે કે સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રના સમાન અપ્રતિહત જ્ઞાનથી સંપન્ન હતા. અથવા જેમ મહાસાગર અપાર જલથી યુક્ત હોય છે, એજ પ્રમાણે તેઓ અનત જ્ઞાનથી યુક્ત હતા. તેઓ નિર્મળ, નિષ્કષાય, જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોથી રહિત, તથા ઈન્દ્રની જેમ દેવોના અધિપતિ તથા અત્યન્ત તેજસ્વી હતા. | ૮ | ___ ---'से' त्या मान व मानवामी 'सागरेव' समुद्रनाम 'पन्नया अक्खए' प्रशाथी अक्षय छ, ४ थी सधणा पहारेन । જાણી શકાય તેને પ્રજ્ઞા કહેવાય છે. તે પ્રજ્ઞાથી અક્ષય છે. અર્થાત જાણવા જેવા જીવાજીવાદરૂપ અર્થમાં ભગવાનનું જ્ઞાન પ્રતિહત થતું નથી તેમ ઓછું થતું નથી. યથાવસ્થિતપણાથી નિત્ય રહે છે, ભગવાનની પ્રજ્ઞા-કેવળ શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006306
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages728
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size40 MB
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