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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १ अ. १३ परक्रियानिषेधः ९४९ गृहस्थः कायम्-शरीरम् 'लुद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा' लोभ्रेण वा-लोघ्रद्रव्यविशेषेण (स्नौ) कर्केण वा-स्नानीय द्रव्यौषधिविशेषेण चूर्णेन वा-गोधूमादिचूर्णद्रव्येण वर्णेन वा-कुङ्कुमादि द्रव्यविशेषेण 'उल्लोढिज वा उन्नलिज्ज वा' उल्लोलयेद् वा-उद्वर्तयेद् , उद्वलयेद् वा-संसृष्टं वा कुर्यात् तर्हि 'नो तं सायए नो तं नियमे' नो तम्-उद्वर्तउस को करने के लिये प्रेरणा भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि ऐसा करने से संयम की विराधना होगी इसलिये संयम पालनार्थ जैन मुनि इस प्रकार के परक्रिया विशेष का मन वचन और तन से अनुमोदन या समर्थन नहीं करें क्योंकि संयम का पालन करना ही परम कर्तव्य माना जाता हैं। ___ अब प्रकारान्तर से गृहस्थ श्रावक के द्वारा जैन साधु के शरीर का लोध्रादि द्रव्यौषधि चूर्णादि से उद्वर्तनादि क्रिया रूप परक्रिया का निषेध करते हैं-'से सिया परो कायं लुटेण वा' उस जैन साधु मुनि महात्मा को काय अर्थात् शरीर का पर अर्थात् गृहस्थ श्रावक वगैरह लोध नामक (स्नो) द्रव्यौषधि विशेष से या 'कक्केण वा' कर्क से अर्थातू स्नानीय द्रव्योषधि विशेष से या "चुण्णेण वा' चूर्ण अर्थात् गोधूमादिचूर्ण द्रव्य से या 'वण्णेण चा वर्ण अर्थात् कुङ्कुमादि द्रव्य से या पाउडर से या सावुन से 'उल्लोढिज वा उव्वलिज वा' उद्धर्तन करे या उबलन अर्थात् औगटन लगावे या लोधादि द्रव्योषधि वगैरह से साधु के शरीर को उद्वर्तनादि करते हुए गृहस्थ श्रावक को जैन साधु 'नो तं सायए' आस्वादन अर्थात् अभिलाषा नहीं करें याने गृहस्थ श्रावक के द्वारा किये जानेवाले उद्धर्तકે તેમ કરવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સંયમનું પાલન કરવા માટે સાધુએ આ પ્રકારની પરક્રિયા વિશેષનું મન વચન અને કાયથી અનુમોદન કે સમર્થન કરવું નહીં કેમ કે-સંયમનું પાલન કરવું એજ સાધુનું પરમ કર્તવ્ય માનેલ છે. હવે ગૃહસ્થ શ્રાવકદ્વારા સાધુના શરીરની લેધાદિ પદાર્થ કે ઔષધિના ચૂર્ણથી ઉદ્વર્તનાદિ ક્રિયારૂપ પરકિયાના નિષેધનું સૂત્રકાર કથન કરે છે. से सिया परो कार्य लुद्धेण' ने जैन मुनिना शरीरनु ५२ अर्थात् १७२५ श्राप विगेरे सो नामनी नानीय द्रव्य मोषधि विशेषयी मय! 'कक्केण' ४४ अर्थात् मे विशेष प्र४।२नी नानीय मौषधीया 'चुण्णेण वा' यू अर्थात् घडविगेरेना विरेथा AUqा 'वण्णेण वा' ४ विगेरे पहाथी है पा१७२थी २अथवा सामुथी 'उल्लोढिज्ज वा, વચ્ચરિન ના ઉદ્ધવર્તન કરે અથવા ઉદ્વલન એટલે કે માલીશ કરે અગર એ લેપ્રાદિ દ્રવ્યૌષધિ વિગેરેથી સાધુના શરીરને સાફ સુફ કરે તે તેને એટલે કે લેધ્રાદિ દ્રવ્યૌષધિ विगरेयी साधुन। शरीरनु तनादि ४२न॥२॥ १७२५ श्राप ने 'नो त सायए' साधुणे तेनु સમર્થન કરવું નહીં અર્થાત્ તેવી અભિલાષા કરવી નહીં. એટલે કે ગૃહસ્થ શ્રાવકદ્વારા ४२वामां माता नानी भनथी अमिता! ४२वी नही. तथा 'नो त नियमे क्यन श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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