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________________ ९४७ मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १ अ. १३ पर क्रिपानिषेधः लोष्ठेन द्रव्यविशेषेण संवाहयेद् वा, परिमर्दयेद् वा 'नो तं सायए नो तं नियमे' नो तम् - संवहन्तं परिमर्दयन्तं वा गृहस्थम् आस्वादयेत् - मनसा अमिलषेत्, नो वा तम्संवाहनादिकं कुर्वन्तं गृहस्थम् कायेन वचसा वा नियमयेत् प्रेरयेत्-नानुमादयेदित्यर्थः 'से सिया परो कार्य' तस्य-भाव साधोः स्यात् कदाचित् परो गृहस्थः कायम् - शरीरम् 'तिल्लेवाघयेण वा वसावा' तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन वा द्रव्यौपविविशेषेण वा 'मक्खिकरते हैं - ' से सिया परो कार्य लोद्वेण संवाहिज वा' उस जैन साधु के काय अर्थात् शरीर को यदि पर अर्थात् गृहपति गृहस्थ श्रावक लोष्ठ द्रव्य विशेष से संवाहन करे या 'पलिमद्दिज वा' परिमर्दन करे या तो उसको अर्थात् गृहस्थ श्रावकादि के द्वारा किये जानेवाले साधु के शरीर का लोष्ठ द्रव्य विशेष से संवाहन परिमर्दन क्रिया रूप परक्रिया विशेष को वह साधु मुनि महात्मा 'नो तं सायए' आस्वादन नहीं करें अर्थात् उस कायसंवाहनादि की मन से अभिलाषा नहीं करें और 'नो तं नियमे' वचन से तथा काय से भी उस का अनुमोदन या समर्थन नहीं करें अर्थात् उस गृहस्थ श्रावक को काय संवाहनादि के लिये वचन तन से भी प्रेरणा नहीं करें क्यिोंकि गृहस्थ श्रावकादि के द्वारा किये जानेवाले काय संवाहनादि किया परक्रिया विशेष होने से कर्मबन्ध का कारण होती है इसलिये संसार के कर्मबन्धों से छुटकारा पाने के लिये दीक्षा और प्रव्रज्या ग्रहण करनेवाले जैन साधु मुनि महात्मा इस प्रकार के गृहस्थ श्रावकादि के द्वारा काय संवाहनादि की अभिलाषा नहीं करें और उसको करने के लिये वचन तन से प्रेरणा भी नहीं करें अर्थात् मन तन और वचन से उस काय संवाहनादि क्रिया का समर्थन या अनुमोदन नहीं करें क्योंकि उस से संयम की भी विराधना होगी अतः संयम पालनार्थ ऐसी प्रेरणा नहीं करें, जैन बा' ले साधुना शरीरने पर अर्थात् गृहस्थ श्राव सोष्ठ नामना द्रव्य विशेषथी 'संवाहिज्ज वा' स'वाहन ४रे अथवा 'पलिमद्दिज्ज वा' परिभईन पुरे तो तेनुं अर्थात् गृहस्थ श्राषड દ્વારા કરવામાં આવતા સાધુના શરીરનુ લાŠાર્ત્તિ પદાર્થ વિશેષથી સંવાહન કે પરિમન डियाइय परडिया मे साधुये 'नो तं सायए' आस्वाउन ४२वु नहीं, अर्थात् मे हाय संवाहनाहि डियानी भनथी छ। अरवी नहीं' तथा 'नो तं नियमे' વચન અને કાયાથી પણ તેનું અનુમેદન કે સમન કરવું નહીં' અર્થાત્ એ ગૃહસ્થ શ્રાવકને કાયસ વાહન વિગેરે માટે વચનથી કે શરીરથી પણ પ્રેરણા કરવી નહીં. કેમકે- ગૃહસ્થ શ્રાવક વિગેરે દ્વારા કરવામાં આવનારી ક્રાયસ વાહનાદિ ક્રિયા એ પરક્રિયા વિશેષ હાવાથી ક`ખ ધના કારણરૂપ હાય છે. તેથી સ'સારના કમ''ધનાથી છુટકારો પામવા માટે દીક્ષા ગૃહણુ કરનારા સાધુએ આવા પ્રકારથી ગૃરુસ્થ શ્રાવકાદિદ્વારા કરાતી કાયસ વાહનાદિ ક્રિયાની ઈચ્છા કરવી નહીં. અર્થાત્ તન મન અને વચનથી એ કાયસ વાહનાદિ ક્રિયાનું સમર્થન કે અનુમેદન કરવુ નહીં”, શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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