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________________ ९२६ आचारागसत्रे 'चक्खुदंसणपडियाए' चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया चाक्षुषप्रत्यक्षी कर्तुम् 'नो अभिसंधारिज्जा गमणाए' नो अभिसन्धारयेद्-मनसि विचारयेद् गमनाय गन्तुं संकल्प न कुर्यादित्यर्थः ‘एवं नायवं जहा सहपडिमा' एवम्-उक्तरीत्या ज्ञातव्या यथा शब्दप्रतिमा शब्दविषयिणी प्रतिज्ञा प्ररू. पिता तथैव 'सव्वा वाइत्तवज्जा रूवपडिमावि' सर्वा वादित्रवर्जा-बाधविशेषरहिता रूपप्रतिकठपुतली वगैरह के रूपों को या इस प्रकार के दूसरे 'विरूवरूवाई चक्खुदंसण पडियाए' अनेक रूपों को आंखो से देखने की इच्छा से अर्थात् चाक्षुष प्रत्यक्ष करने ने लिये 'नो अभिसंधारिजा गमणाए' उपाश्रय से बाहर किसी भी दूसरे स्थानों में जाने के लिये मन में संकल्प या विचार नहीं करे, क्योंकि इस प्रकार के स्वस्तिक आदि के अत्यन्त दर्शनीय रूपों को देखने से सांसारिक विषयों की ओर आसक्ति बढ़ जाने से संयम की विराधना होगी इसलिये संयम पालन करनेवाले साधु और साध्वी को इस तरह के उपर्युक्त रूपों को नहीं देखना चाहिये और इस प्रकार के रूपों को देखने के लिये उपाश्रय से बाहर किसी भी दसरे स्थानों में जाने के लिये मन में संकल्प या विचार भी नहीं करना चाहिये क्योंकि संयम का पालन करना ही जैन मुनि महात्माओ का परम कर्तव्य समझा जाता है, यहां पर पूर्वोक्त एवं नायव्वं जहा सद्दपडिमा सव्वा' शब्दों के विषय में जितनी बातें बतलायी गयीं हैं उसी प्रकार से रूपों के बारे में भी सारी बातें समझनी चाहिये किन्तु 'वाइत्तवज्जा रूवपडिमा वि' केवल वादिन अर्थात् गाजा बाजा झाल मृदङ्ग परवउज वगैरह को छोड़ देना चाहिये अर्थातू बाजा विषय की मा ४२ना मी भने ३याने 'चक्खुदसणपडियाए' माथी पानी ६२७।थी 'नो अभिसंधारिज्जा गमणाए' उपाश्रयनी महार 31 मारे २थणे ४१। माटे भनभा स४६५ કે વિચાર કરવો નહીં. કેમ કે આવા પ્રકારના સ્વસ્તિક વિગેરેના અત્યંત ચિત્તાકર્ષક રૂપને જેવા થી સાંસારિક વિષેની તરફ આસક્તિ થવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે, તેથી સંયમનું પાલન કરવાવાળા સાધુ કે સાધ્વીએ આવા પ્રકારના પૂર્વોક્ત રૂપને જોવા ન જોઈએ. તથા આવા પ્રકારના રૂપને જોવા માટે ઉપાશ્રયની બહાર કોઈ પણ અન્ય સ્થાનમાં જવાને મનમાં વિચાર પણ કરે નહીં. કેમ કે સંયમનું પાલન કરવું એ જ भुनी मानु ५२म ४तव्य मानवामा मापेस छ ‘एवं नायव्वं जहा सद्द रडिमा सव्वा वाइत्तबज्जा रूवपडिमावि' मा विषयमा पूर्वात शाह अपना समयमा २२ ४थन ४२wi આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું સઘળું કથન આ રૂપના સંબંધમાં સમજવું પરંતુ કેવળ વાત્ર મૃદંગ ઢોલ વિગેરે વાદ્ય સંબંધી કથનને છેડીને અન્ય સઘળું કથન આ રૂપના श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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