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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० २ अ. ११ शब्दासक्तिनिषेधः ९०५ कर्णश्रवणेच्छया श्रोतुम् 'नो अभिसंधारिज्जा गमणाए' नो अभिसंधारयेद्-मनसि विचारयेद् गमनाय-गन्तुं संकल्पं न कुर्यादितिभावः ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'अहावेगइयाई सदाइं सुणेई' यथा वा एककान शब्दान् शृणोति-'तं जहा-ट्टा. णि वा अट्टालियाणि वा' अट्टानि वा-आपणोद्भवान् वा 'अट्टालिका वा-प्रासादोपरितनभागदूसरे भी स्थानों में उत्पन्न नाना प्रकार के शब्दों को 'कण्णसोयणपडियाए' कानों से सुनने की इच्छा से 'नो अभिसंधारिजा गमणाए' उन आरामादिस्थानों में नहीं जाय क्यों कि इस प्रकार के शब्दों को सुनने से आसक्ति बढ जायगी जिस से संयम की विराधना होगी क्यों कि ये आरामादिके शब्द अत्यन्त आकर्षक होते हैं इसलिये आत्मा की उन्नति के लिये तपश्चार्यादि में मन नहीं लगेगा और शब्दादि विषयों की ओर फंसावट बढ़ जाने से संयम का पालन नहीं हो सकेगा किन्तु संयम का पालन करना ही संयमशील साधु मुनि महात्मा का और साध्वी का परम कर्तव्य माना गया है इसलिये संयमपालन करने वाले साधु और साध्वी को इस प्रकार के आराम वगैरह में उत्पन्न शब्दों को सुनने के लिये उपाश्रय से बाहर किसी भी स्थान में नहीं जाना चाहिये। फिर भी प्रकारान्तर से अटारी वगैरह में उत्पन्न रमणीय शब्दों को भी सुनने के लिये संयमशील साधु और साध्वी को नहीं जाना चाहिये यह बतलाते हैं'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा, अहा वेगइयाई सदाइं सुणेइ'-वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि वक्ष्यमाण रूप वाले शब्दों को सुने 'तं जहा' जैसे कि-'अट्टाणि वा' अट्ट अर्थात् आपण दुकान में उत्पन्न शब्दों को या 'अट्टालियाणि वा' अट्टालिका-अटारी में उत्पन्न शब्दों को या 'चरियाणि थता भने २॥ शहार 'कण्णसोयणपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए' अनाथी સાંભળવાની ઈચછાથી એ બગીચા વિગેરે સ્થાનમાં જવું નહીં કેમકે આ પ્રકારના શબ્દને સાંભળવાથી તેમાં આસક્તિ ઉત્પન થાય છે. જેથી સંયમની વિરાધના થાય છે. કેમકે આ આરામ વિગેરેના શબ્દો અત્યંત આકર્ષક હોય છે. તેથી આત્માની ઉન્નતિ રૂપ તપશ્રર્યાદિમાં મન લાગે નહીં અને શબ્દાદિ વિષયની તરફ આકર્ષણ થવાથી સંયમનું બરોબર પાલન થઈ ન શકે પરંતુ સંયમનું પાલન કરવું એજ સંયમ મુનિ અને સાધ્વીનું પરમ કર્તવ્ય હોવાથી આ રીતના બગીચા વિગેરેમાં થતા શબ્દોને સાંભળવા માટે ઉપાશ્રયમાંથી બહાર કોઈપણ સ્થાનમાં જવું નહીં. અટારી વિગેરેમાં ઉત્પન્ન થતા રમણુંય શબ્દોને પણ સાંભળવા માટે સાધુ અને सपी 4 वर्ष ४यन ४२ छ.-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते सयमशीस साधु २५२ सावी 'अहावेगइयाई सदाइं सुणेइ' ले १६यमा प्रार्थी यता १७४२ सांगणे 'तं जहा' २॥ 3-'अट्टाणि वा' भट्ट मेटले दुनमा पन्न थता होने 'अट्टालियाणि वा' आ० ११४ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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