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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २अ. ९. १ स्वाध्याय भूमावाचरणीयानाचरणीयविधिः ८५३ निसीहियं फासूयं चेइस्तामि' तथाप्रकाराम् - अण्डप्राण्यादिरहितां निषीधिकां प्राकाम् अचित्ताम् एषणीयां मत्वा चेतयिष्यामि - परिगृह्णीयात् ' एवं सिज्जागमेणं नेयब्वं' एवम्उक्तरीत्या शय्यागमेन शय्यासम्बन्धि आलापकेन नेतव्यम् स्वयं ज्ञातव्यम्, तदवधिमाह'जव उदयपसूयाई' यावद् - उदकप्रसूतानि कन्दानि मूलानि बीजानि पुष्पाणि हरितानि फलानि वा यदि तस्यां साध्यायभूमौ स्युस्तर्हि तां भूमिं स्वाध्यायार्थं नो परिगृह्णीयादित्यर्थः, सम्प्रति स्वाध्यायार्थं तत्रगतानां साधूनां कर्तव्यविधिमाह - 'जे तत्थ दुवग्गा तिग्गा चत्रग्गा पंचग्गा वा' ये तत्र स्वाध्यायभूमौ द्विवर्गा :- द्वौ साधू, त्रिवर्गाः त्रयो वा साधवः, चतुवर्ग:- चत्वारो वा साधवः, पञ्चवर्गाः पञ्च वा साधवः 'अभिसंधारिति निसीहियं गमण ए' रहित है एवं उत्तिङ्ग पनक शीतादक पृथिवीकाय जीवों से भी रहित है तथा मकड़े के जाल परम्परा से भी रहित है इस प्रकार एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रस पृथिवी कायिक जीव वगैरह से रहित होने पर 'तहप्पगारं निसीहियं' इस तरह के स्वा भूमि में 'फासुग्रं वेइस्सामि' अप्रासुक अचित्त और एषणीय-आधाकर्मादि दोषों से रहित होने पर उसे अचित्त और एषणीय समझते हुए स्वाध्याय के लिये ग्रहण करलेना चाहिये, 'एवं सिज्जागमेणं नेयव्वं' एवं उक्तरीति से शय्या ध्ययन के प्रकरण के अनुसार स्वयं समझ लेना चाहिये 'जाव उदयप्पस्याई' यावत् उदक प्रसूत कन्दमूलादि पर्यन्त शय्याऽध्ययन के आलापक के अनुसार ही यहां पर भी आलापक समझलेना चाहिये अर्थात् यदि स्वाध्याय भूमि में भी उदक से उत्पन्न कन्द कांदा मूल बीज फल पुष्प हरित वगैरह वस्तु हो तो उस भूमि में स्वाध्याय के लिये नहीं जाय । अब स्वाध्याय के लिये स्वाध्याय भूमि में गये हुए साधुओं का कर्तव्यविधि बतलाते हैं- 'जे तत्थ दुवग्गा तिवग्गा चउवग्गा पंचत्रग्गा' वहां स्वाध्यायभूमि में में दो साधु या तीन साधु या चार साधु या पांच साधु 'अभिसंधारिति निसी પણ રહિત છે. તથા ઉર્નિંગ પનક તથા શીતેાદક પૃથ્વીકાયના જીવા વનાની છે, તથા કરાળીયાની જાળ પર પરાથી પણ રહિત છે. આ પ્રકારના એકેન્દ્રિય દ્વીન્દ્રિય ત્રસ પૃથ્વીअय विगेरेथी रडित होवाथी 'तहप्पगारं निसीहियं मा प्रहारनी स्वाध्याय भूमीने 'फासूयं चेइस्सामि' प्रासु यत्ति भने शेषाशीय आधार्भा होषो विनानी होवाथी तेन स्वाध्याय भाटे हुए भरी क्षेत्री, 'एवं सिज्जागमेगं नेय' तथा त प्रहारथी शय्याध्ययनना પ્રકરણમાં કહેલ આદ્યાપક પ્રમાણે જ અહીંયાં પણ માલાપો સમજવા, અર્થાત્ જો स्वाध्याय भूमिमां पशु 'जाव उदयप्पसूयाई' पाणीश्री पेहाथनार ४४, भूज भी इज युष्यट्ठे લીલેાતરી વિગેરે વસ્તુ ડેાય તે તે ભૂમિમાં સ્વાધ્યાય માટે જવું નહીં, હવે સ્વાધ્યાય માટે સ્વાધ્યાય ભૂમિમાં ગયેલા સાધુએની કન્ય વિધિનું કથન કરે - 'जे तत्थ दुबग्गा तिवग्गा चवग्गा पंचवग्गा' से स्वाध्याय भूमिमां मे साधु अगर શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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