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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कध २ उ. २ स. ६ सप्तम अवग्रहप्रतिमाध्ययननिरूपणम् ८१५ णीयं मन्यमानः प्रतिगृह्णीयात् ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा अभिकाइ क्षेत् 'अंबमित्तगं वा अंबपेसियं वा' आम्रभित्तकं वा-आम्रफलाघखण्ड मागं वा, आम्रपेशिका वा-आम्रफलसारभाग वा 'अंबचोयगं वा' आम्रवचं वा-आम्रफलत्वग्रभागं, 'अंसालगं वा' आम्रसालकं वा-आम्रफलरसं वा, 'अंबडालगं वा' आम्रफलावण्डं वा 'मुत्तर वा पायए वा भोक्तुं पा पातुं वा अभिकाङ्क्षदिति पूर्वेणान्वयः ‘से जं पुण जाणिज्जा' स साधुः यत् पुनः जानीयात् 'अंबभित्तगं वा जाव सअंडं जाव अफामुयं नो पडिगाहिजा' आम्रमित्तकं वा-आम्र. फलार्धमागं यावत्-पाम्रपेशिकां वा आम्रवचं वा, आम्रपालकं वा आम्रडालक वा साण्डम् -- अण्डसहितम् यावत्-सवीज सहरितं सोदकम् सोत्तिङ्गपनकदक मृत्तिकालतातन्तु नालसहितं जाल परम्परा रहित भी है और 'तिरिच्छछिन्नं' तिर्यकछिन्न भी है अर्थात् टेढा काटा हुआ भी है और 'बुच्छिन्नं' व्युच्छिन्न भी है अर्थात् खण्ड परखण्ड करके काटा हुआ भी है ऐसा जानकर इस प्रकार से आम्रफल को 'फासुयं जाव पडि गाहिज्जा' प्रासुक अचित्त समझते हुए यात् एषणीय आधाकर्मादि सोलह दोषों से रहित मानते हुए साधु और साध्वी ग्रहग करले, क्योंकि इस प्रकार के अण्डादि सम्पर्क से रहित और तिरछा काटा हुभा एवं खण्ड ग्बण्ड करके काटा हा आम्रफल प्रासुक-अचिस एवं एषणीय आधाकर्मादि दोषों से रहित होने से साधु और साध्वी को ग्राह्य होता है। ___ अब आम्रफल के अर्धभाग तथा सारभाग वगैरह को भी साधु और साध्वी के लिये विशेष अवस्था में अर्थात् अण्डादि युक्त होने पर अग्राह्य बतलाते हैं'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी 'अंबभित्तगं वा' आम्रफल के अधखण्ड भाग को या 'अंबपेसियं वा' आम्रफल के सार भाग को या 'अंबचोयगं वा' आम्रफल के त्वचा भाग को या ५२५२।थी ५६ २डित छ. तथा तिरिच्छछिन्नं' तिय छिन्न अर्थात् पिली पर छे. तथा 'वुन्छिन्नं' व्युरिछन्न अर्थात ४४७ ४४७१ ४शन पे छ तो मादी रीतनी शन 'फासुय' प्रासुर मयित्त समलने 'जाव पडिगाहिज्जा' यावत् पाय- मायामाह સોળ દેથી રહિત માનીને સીધુ કે સાધ્વીએ ગ્રહણ કરી લેવી કેમ કે આ પ્રકારથી ઈંડા વિગેરેના સંપર્કથી રહિત અને વર્ક કેરીને કાપેલ અને કકડા કરેલ કેરીને પ્રાસુક અચિત્ત અને એષણીય અને આધાકર્માદિ દોષોથી રહિત હોવાથી સાધુ અને સાવીને ગ્રહણ કરવાથી દેષ લાગતું નથી. - હવે કેરીના અર્ધાભાગને તથા સારભાગ વિગેરેને પણ સાધુ અને સાધ્વીને અંડાદિ युक्त डाय तो मया हा विषेतु ४थन ४२ छ -'से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वरित संयमशीस साधु सने सी 'अंबभित्तगं वा' शना मनायने ५२ अंब पेरियं वा' 01 सा२ भागने 'अंधचो गं वा' शनी छाने अथवा 'अंबसालग वा' श्री.माया सूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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