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________________ ७२२ आचारांगसूत्र रञ्जनं कुर्यात 'नो धोयरत्ताई वत्थाई धारिना' नो वा धौतरक्तानि वस्त्राणि धारयेत् 'अपलिउंचमाणो गामंतरेसु दुइज्जिज्जा' अपरिकुश्चमानः-वस्त्राणि न गोपयन् अधिकं वस्त्रं न संरक्षन् साधूनां द्विसप्ततिः साध्वीनाश्च षण्णवतिः वस्त्राणि विहितानि ततोऽधिकं न धारयेदित्यर्थः ग्रामान्तरेषु-प्रामादिषु दयेत विचरेत् 'ओमचे लिए' अवमचेलक:-अल्प-असारवस्त्रधारकः सन् सुखपूर्वकं विचरेदित्यर्थः 'एयं खलु वत्थधारिस्स सामग्गियं' एवत् खलु अस्प-असारवस्त्रधारणं वस्त्रधारिणः वस्त्रधारकस्य साधोः साध्च्याश्च सामग्र्यम्-सामग्रीसम्पूर्ण आचारः ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षु भिक्षुकी वा 'गाहावइकुलं' गृहपतिकुलं प्रवेष्टुकामः प्रवेष्टुमिच्छन् 'सव्वं चीवरमायाए' सर्व चीवरं वस्त्रम् आदाय 'गाहावइकुलं निक्खमिज्ज का पविसिज्ज वा' गृहपतिकुलं निष्क्रामेद् वा-उपाश्रयाद् निर्गच्छेत् कर याने धोकर नहीं पहने या धोकर नहीं धारण करें और 'नो रएज्जा' गेरूक वगैरह रंग से रंग कर भी नहीं धारण करे 'नो धोयरत्ताई वत्थाई धारिज्जा' इसी तरह धोकर और रंग कर अर्थात् धोए हुए और रंगे हुए भी वस्त्र को नहीं धारण करे और 'अपलिउंचमाणे गामंतरेसु दूइज्जमाणे' अधिक वस्त्रां को छीपा कर भी नामान्तर में नहीं जाय, बल्कि 'ओमचेलिए' थोडे ही सारहीन तुच्छ वस्त्र को धारण करते हुए सुखशान्ति पूर्वक विचरना चाहिये 'एयं खलु वत्थधारिस्स सामग्गियं' यही असार और अल्प वस्त्र धारण करना ही वस्त्र धारण करने वाले साधु का और साध्वी का सामय्य साधुता का समग्रतारूप आचार या साध्वाचारविचार अर्थात् सामाचारी समझनी चाहिये। __ 'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, गाहावइकुलं पविसिउ कामे' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु, और भिक्षुकी साध्वी यदि गृहपति-गृहस्थ श्रावक के घर में प्रवेश करना चाहे तो अपना 'सव्वं चीवरमायाए गाहावइकुलं निक्खमिज्ज' वा पविसिज वा' सारा चीवर, वस्त्र लेकर ही गृहपति-गृहस्थ श्रावक के घर में प्रवेश ३ विगैरे २ गयी २० ५४ धारा न ४२वा. तया 'नो धोयरत्ताई वत्थाई धारिजा' घोधन २७ अर्थात् पाये। सन २'गेसा वनने ५४ धा२९१ न ४२१. तथा 'अपलि उंचमाणे' पधारे पाने छुपाबीन 'गामंतरेसु दुइज्जमाणे' याभान्तरमा नही. परंतु 'ओमचेलिए' यो। भने सा२ विना तुच्छ वस्त्र धा२९५४रीन सुभ पूर्व वियर ४२. 'एयं खलु वत्थधारिस्स सामग्गिय' मे०४ २मर्थात् असा२ अने. २५८५ पत्र पा२९५ કરવા. એજ વસ્ત્ર ધારણ કરનારા સાધુ સાધ્વીનું સામગ્રય અર્થાત્ સાધુપણાની સમગ્રતા ३५ माया२ मा२ सापाया२ विया२ अथवा सामायारी समावी. 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते प्रति संयमशीस साधु सने साली 'गाहावइकुलं पविसिउकामे' ने ७२५ श्रावना घरमा प्रवेश ४२वानी ४२७। ४२ तो 'सव्वं चीवरमायाए गाहावइकुलं निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा' पाताना समय खान बन गृहस्थ श्रा१४॥ घरमा प्रवेश श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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