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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू० ८ पञ्चमं वस्षणाध्ययननिरूपणम् ७१९ 'से भिक्खू वा भिक्खुणो वा' स मिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'तमायाए' तद्-वस्त्रम्, आदायगृहीखा 'एगंतमवक्कमिज्जा' एकान्तम्-निर्जनस्थलम् अपक्रामेत्-निर्गच्छेत् 'एगंनमक्कमित्ता' एकान्तम् अपक्रम्य 'अहे झामथंडिलंसि वा' अधः दग्धस्थण्डिले वा 'जाव जन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि' यावत्-किट्टराशौ वा तुषराशौ वा शुकगोमयराशौ वा अन्यतरस्मिन् वा-तदन्यस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डि ले 'पडिलेहिय पडिलेहिय' प्रतिलिख्य प्रतिलिख्यपौनः पुन्येन प्रतिलेखनं कृत्वा 'पमज्जिय पमज्जिय' प्रमृज्य प्रमृज्य-वारंवारं चक्षुषा प्रत्युपेक्ष्य मुखवस्त्रिकाधारको मुनिः रजोहरणादिनैव नतु मार्जन्या प्रमार्जनं विधाय 'तओ संजयामेव वत्यं आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा' ततः प्रमार्जनानन्तरम् संयतमेव-यतना की संभावना रहती है इसलिये संयम पालन करने वाले साधु और साध्वी को यतना पूर्वक ही ऐसे स्थल में वस्त्र को सुखाना चाहिये जिस से संयमकी विरा धना न हो, क्योंकि संयम का पालन करना ही साधु का परम कर्तव्य है। अब किस प्रकार और कहां पर वस्त्र को सुखाना चाहिये यह बतलाते हैं___ 'से भीक्खू वा भिक्खुणी वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी 'तमायाए' अपने उस वस्त्र को लेकर 'एगंतमवक्कमिज्जा' एकान्त में चला जाय और 'एगंतवक्कम्म अहे ज्झामथंडिलंसि वा' एकान्त में जाकर नीचे दग्ध स्थण्डिल पर अर्थात् बिलकुल ही जली हुई भूमि पर जहां कि हरे भरे तृण घास वगैरह वनस्पति कायिक जीब नहीं हो 'अन्नयरंसिया तहप्पगारंसि धंडिलंलि' इस तरह के दग्ध स्थण्डिल पर या किट्टराशि या तुषराशि या गोमय पर उस स्थण्डिल को 'पडिलेहिय पडिलेहिय' बार बार प्रतिलेखन करके तथा 'पजिय पमजिय' बार बार प्रमार्जन करके अर्थात् आंख से देख भाल कर 'तओ संजयामेव' उस के बाद संयम पूर्वक ही 'वत्थं आयाસાધુ અને સાધવીએ યતનાપૂર્વક જ એવા સ્થળે કપડા સુકવવા જોઈએ કે જેથી સંયમની વિરાધના થાય નહી. કેમ કે સંયમનું પાલન કરવું એજ સાધુનું પરમ કર્તવ્ય છે. ३ १सने 39ी २ भने यो सुचवाते सूत्र॥२ ४ छ. 'से भिक्खू वा भिक्खु. णी वा' ते पूर्वरित सयमशीस साधु ने साली 'तमायाए एकंतमवक्कमिज्जा' पोताना सु४११॥ योय पलने स२ तिमो यादया सन 'एगंतमवक्कम तमा न 'अहे ज्झामथंडिलंसि वा' नाय मणी गये भूमिनी ५२ rii elan तृष्य पास विगेरे पन२५तिथि01 न डाय थे ४२॥ पणे भूमिनी ५२ तया 'अन्नयर सि वा तहप्पगारंसि' अथवा अन्य त स्थान ५२ रेभ , २ . तु५२॥२॥ी 4441 सुरेसा ॥४॥ ७५२ 'थंडिलंसि पडिलेहिय पडिलेहिय' मे २२ सानु वारपार प्रतिमन उश तथा ‘पमज्जिय पमज्जिय' पा २ प्रमान ४री अर्थात् सूक्ष्म न४२थी २५१ न जरीन 'तओ संजयामेव वत्थं आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा' ते पछी संयम पू श्री माया सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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