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________________ मर्मप्रकाशका टीका श्रुतस्कघ २ उ. १ सू० ६ पञ्चमं वस्त्रैषणाध्ययननिरूपणम् ६९३ रूपम्, उत्तरीयं वा-आच्छादनरूपं द्वितीयवस्त्रं वा स्यात् 'तहप्पगारं वत्थं सयं वा जाइज्जा' तथाप्रकारम् अन्तरीयरूपम् उत्तरीयरूपश्च वस्त्रं स्वयं वा साधुः याचेत 'परो वा से देज्जा' परो वा गृहस्थः तस्मै साधवे दद्यात् 'फासुयं एसणिज्जं जाव पडिगाहिज्जा' प्रामुकम्अचित्तम्, एषणीयम-आधाकर्मादिदोषरहितं तद वस्त्रम् यावद्-मन्यमानः साधुः लाभे सति प्रतिगृह्णीयात् 'तच्चा पडिमाइ' इति तृतीया प्रतिमा-अभिग्रहविशेषरूपा वस्त्रैषणा बोध्या, अथ चतुर्थम अभिग्रहविशेषस्वरूपं प्ररूपयितमाह-'अहावरा चउत्था पडिमा' अथ अपराअन्या चतुर्थी प्रतिमा वस्त्रेपणा प्ररूप्यते-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'उज्झियधम्मियं वत्थं जाइज्ना' उज्झितधार्मिकं धार्मिकोपभुक्तपरित्यक्तम् धार्मिक कृतो. लेतो इस प्रकार के अन्तरीय वस्त्र तथा 'उत्तरिज्जं वा' उत्तरीय वस्त्रो को 'तहप्पगारं वत्थं सयं वा जाइज्जा' वह साधु स्वयं याचना करे 'परो वा से दिज्जा' या वह गृहस्थ श्रावक उस साधु को अन्तरीय वस्त्र या उत्तरीय वस्त्र दे देवे तो उस अन्तरीय वस्त्र तथा द्वितीय वस्त्ररूप उत्तरीय वस्त्र को 'फासुयं एसणिज्जं जाव' प्रासुक अचित्त और एषणीय अर्थात् आधाकर्मादि दोषों से रहित समझकर 'पडिगाहिज्जा' मिलने पर मुनियों को ग्रहण कर लेना चाहिये। क्योंकि इस प्रकारके अधः परिधानरूप अन्तरीय वस्त्रको और ओढने योग्य द्वितीय वस्त्ररूप उत्तरीय वस्त्रको लेने से संयम की विराधना नहीं होती यह 'तच्चा पडिमा' यह तृतीय अभिगृह विशेषरूप प्रतिमा अर्थात् वस्त्रैषणा समझना। अब चतुर्थी अभिग्रह विशेष रूप प्रतिमा अर्थात् वस्त्रैषणा का निरूपण करते हैं ___ 'अहावरा चउत्था पडिमा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' अथ तृतीय वस्त्रै. षणा रूप प्रतिमा के निरूपण के बाद चतुर्थी अन्य प्रतिमा वस्त्रषणा रूप प्रतिज्ञा का निरूपण करते हैं वह भिक्षु पूर्वोक्त संयमशील साधु और भिक्षुकी छ. तो 'तहप्पगार वत्थं सयं वा जाइज्जा' से शतनु अतरीय पत्र तथा उत्तरीय पलने साधुसे यायना ४२वी. अथवा 'परो वा से देज्जा' ७२५ श्राप से साधुने मतरीय १. उत्तरीय पर माथे त ते पसने 'फासुय एसणिज्जं जाव' प्रा-मयित्त भने सपीय मर्याल मायामात होषाथी २हित सभ ने 'पडिगाहिज्जा' हे पुरी वी. કેમ કે આવા પ્રકારના અધ:પરિધાન રૂ૫ અંતરીય વસ્ત્રને અને ઓઢવા ગ્ય બીજા ઉત્તરીય વસ્ત્રને લેવાથી સંયમની વિરાધના થતી નથી. આ ત્રીજી અભિગ્રહ વિશેષ રૂપ પ્રતિમા છે. અર્થાત્ ત્રીજી વાણુ સમજવી. व याथी मलिड विशेष ३५ प्रतिभानु नि३५५५ ४२वामा मावे छे. 'अहावरा चगत्या पडिमा' त्री पष। ३५ प्रतिभानु नि३५५५ ४शन यायी वसेष। ३५ प्रतिज्ञानु नि३५ ४२वामां आवे छे. 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पति सयभशीत साधु भने साथी 'उज्झियधम्मिय वत्थं जाइज्जा' रे पखने चामि४ ५३५ यापरीन શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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