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________________ आचारांगसूत्रे यम्-कर्तव्यमेव एतद् एवंविधं वप्रादिकं भवादृशानाम् 'एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव नो भासिज्जा' एतत्प्रकाराम् अन्यामपि भाषाम् अधिकरणानुमोदनात् सावधाम् सगोम् यावद्भूतोपघातकत्वाद् अभिकाक्ष्य-मनसा पर्यालोच्य विचार्य नो भाषेत, अथ साधूनां तद्विषये वक्तव्यप्रकारमाह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'जहा वेगई. याई रूवाइं पासिज्जा' यथा वा-यद्यपि एककानि-कतिपयानि वक्ष्यमाणानि कानिचिद् रूपाणि-विशिष्टरूपाणि वस्तूनि पश्येद् अवलोकयेत् 'तं जहा-चप्पाणि वा जाव गिहाणि वा' तघथा-वप्राणि वा-दुर्गरूपाणि, यावद् गृहाणि वा हर्यप्रासादरूपाणि 'तहावि ताई एवं वइज्जा' तथापि तानि वप्रादीनि गृहान्तानि विशिष्टरूपाणि वस्तूनि एवम्-वक्ष्यमाणरीत्या अथवा-'कल्लाणेइ वा' कल्याण कारक है या 'करणिज्जेइ वा' करने योग्य ही है इस तरह का वप्रादि आप जैसे मनुभावों का है 'एयप्पगारं भासं सावज जाव' इस प्रकार की भाषा सावद्य सगहर्य निंदनीय होने से अर्थात् अधिकरण का अनुमोदन समर्थन करने से सावध मानी जाती है एवं यावत्-भूतों प्राणीयों का उपघातक होने से भी सावध मानी जाती है इसलिये उक्तरीति से बहुत ही सुन्दर बनाया हुआ वादि है ऐसी भाषा का मन से पर्यालोचन कर 'नो भासि ज्जा' नहीं प्रयोग करना चाहिये, अब साधु और साध्वी को किस प्रकार बनाये हुए वप्रादि के विषय में बोलना चाहिये यह बतलाते हैं 'से भिक्खू वा भिक्खु. णी वा जहा वेगईयाई रुवाई पासिज्जा'-वह पूर्वोक्त भिक्षु-संयमशील साधु ओर भिक्षुकी साध्वी यद्यपि अनेकरूपवाले बहुत ही विशिष्ट वस्तुओं को देखेगा 'तं जहा वप्पाणि वा-जाव गिहाणि वा' जैसे कि वनों को दुर्गों को तथा यावत् हर्म्य-महल प्रासाद-विशिष्ट दुमहला वगैरह को कोठा को तथा विशिष्ट गृह वगैरहको देखेगा-तहावि, ताई एवं वइज्जा'-तथापि उन वप्रादि विशिष्ट वस्तुओं अरेस छे. मथ'कल्लागेइ वा' । यार ॥२४ छ. अथवा 'करणिज्जेइ वा' । ४२१योग्य ४ छ. ॥ प्रारना पाहि मा५ । भानुभाव।०४ ४३री शहै 'एयप्प. गारं भासं सावज्ज' वा प्रारनी भाषा साप नाहनीय हवाथी अर्थात मधिनु भानुभाहन भने समर्थन ४२वाथी साप मानवामा मात्र छ. 'जाव नो भासिज्जा' से ચાવત ભૂતે પ્રાણિઓને ઉપઘાત કરનાર હેવાથી પણ સાવદ્ય મનાય છે. તેથી ઉક્ત રીતે ઘણુ સરસ બનાવવામાં આવેલ વપ્રાદિ છે એવી ભાષાનો મનથી વિચારીને બલવી ન જોઈએ. હવે સાધુ અને સાવીએ કેવા પ્રકારના શબ્દથી વપ્રાદિ વિષે બેલિવું તે સૂત્રકાર मताव छ.-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पुर्वात सयभशील साधुसने साध्वी 'जहा वेगइयाई रूवाई पासिज्जा' ले भने ३५वाजी ५५ विशेष प्रा२नी १२तुमान मये 'तं जहा' म 'वप्पाणि वा जाय गिहाणि वा' पनि हुनि तथा यावत्या , મહેલ, પ્રાસાદ વિશેષ પ્રકારના બે મજલા વિગેરે કઠાને તથા ગૃહ વિગેરે જોવામાં मा. 'तहा वि ताई एवं वइज्जा' तो मे पाहि विशेष वस्तुमान ॥ १क्ष्यमा श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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