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________________ मर्म प्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ रु. ५ चतुर्थ भाषाजातमध्ययननिरूपणम् ६३१ गण्डरोगी कुप्येत् तथा व कलहादिना संयमविराधना स्यादिति भावः, एवं कुष्ठी-कुष्ठरोगी गलितकुष्ठरोगयुक्तं पुरुषं कुष्ठी इति शब्देन न भाषेत, एवं यावत् श्वेतकुष्ठरोगयुक्तं कुष्ठी इति शब्देन पुरुषं भाषेत एवम् मधुमेहिनम् मधुपमेहरोगयुक्तं पुरुषं मधुमेही इति शब्देन न भाषेत इत्यग्रेणान्धयः। एवं 'हत्थच्छिन्नं हत्यच्छिन्नेति वा हस्तच्छिन्नम्-छिन्नहस्तं पुरुष हस्तछिन्नः छिन्नहस इति शब्देन न भाषेत 'एबं पायछिन्नेति वा नक्कछिण्णेति वा कए गछिन्नेति वा पादच्छिन्नं छिन्नपादं मनुष्यं पादच्छिन्नः छिन्नपद इति, नासिकाछिन्नम् अर्थात् कण्ठमालरूप गण्डरोग युक्त पुरुष को अथवा पादशोफात्मक फिल पांच रूप गण्डरोग युक्त पुरुष को 'यह गण्डी है' ऐसा नहीं बोलना चाहिये क्योंकि 'गण्डी' को गण्डी शब्द से बोलने पर वह गण्डरोगी सत्यहोने पर भी कटु होने पर गुस्सा करेगा और कलहादि करने से साधु और साध्वी को संयम की विरा. धना होगी इसी तरह 'कुट्टीकुट्ठीति वा' कुष्ठी अर्थात् गलितकुष्ठरोगयुक्त पुरुष को 'कुष्ठी' इस शब्द से नहीं बोलना चाहिये एतावता साधु और साध्वी कुष्ठरोग युक्त पुरुष को कुष्ठी शब्द से व्यवहार न करे इसी प्रकार 'जाव महमेहणी महुमेहुणीति वा' यावत् श्वेत कुष्ठ युक्त पुरुष को भी कुष्ठी शब्द से नहीं बोलना चाहिये क्योंकि यह सत्य होने पर भी कटु होने से वह कुष्ठरोग युक्त पुरुष कुपित होजायगा और कुपित हो जाने से झगडा कलह वगैरह करने से साधु और साध्वी को संयम की विराधना होगी एवं मधु प्रमेह रोग युक्त पुरुष को मधु मेही' इस शब्द से नहीं बोलना चाहिये, तथा 'हत्थच्छिन्नं हत्थच्छिन्नेतिवा' छिन्न हस्त पुरुष को छिन्न हस्त शब्द से नहीं बोलना चाहिये एवं 'पायछिन्ने तिवा' छिन्नपाद पुरुष को छिन्न पाद शब्द से और 'नक्कछिन्नेति वा' छिन्न नासिक पुरुष को छिन्ननासिक शब्द से तथा 'कण्णछिन्ने तिवा' छिन्नकर्ण રોગવાળા પુરૂષને “આ ગડગી છે એમ કહેવું નહીં. કેમ કે ગડીને ગડી શબ્દથી કહેવાથી તે ગંડરોગી સત્ય હોવા છતાં પણ પિતાને કટુ લાગવાથી તેને ગુસ્સો આવશે અને કલાદિ કરવાથી સાધુ અને સાધવીના સંયમની વિરાધના થશે એજ પ્રમાણે કરી પુટ્ટીતિ वा जाव महुमेहुणी महुमेहुणीति वा' श्वेत दिवाणा ५३५ने ५५५ दिये। म ४ नही. એજ પ્રમાણે યાવત્ ગલિત કઢવાળાને પણ કેઢિયે એમ કહેવું નહીં કેમ કે–આ કથન સત્ય હોવા છતાં પણ કટુ હોવાથી તે કેઢિયે પુરૂષ ક્રોધિક થઈ જશે અને કોધિત થવાથી ઝગડે કલહ વિગેરે કરવાથી સાધુ અને સાધ્વીને સંયમની વિરાધના થશે. એજ પ્રમાણે મધુ પ્રમેહ રોગવાળા પુરૂષને મધુમેહી” આ શબ્દથી બે લાવ નહીં તથા “ફુરિક हत्थच्छिन्नेति वा' ४पाये थाणा ५३५२ ५४' ही माता। न नये. 'एवं पायच्छिन्नेति वा' ५॥ पायेस ५३५ने सेवा टर' थी मन 'नक्कच्छिन्नेति वा' its पाये ५३पने 'नो' से २५४थी तथा 'कण्णच्छिन्नेति वा' ४ान पाये ५३५ने श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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