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________________ आचारांगसूत्र सकिरियं ककसं कडुयं निठुरं फरुसं' तथाप्रकाराम् पूर्वोक्तरूपां सत्यामपि भाषां सावधाम् अवद्येन गर्येण सह वर्तते इति सावद्या तां सगा सत्यामपि भाषां साधुन भाषेतेत्यग्रेणान्वयः, एवं सक्रियाम् क्रियया अनर्थदण्डप्रवृत्तिरूपया सह वर्तते इति सक्रिया तादृशीमपि अनर्थदण्डप्रवृत्तिलक्षणक्रियायुक्तां भाषां सत्यामपि न भाषेत, एवं कर्कशां कठोराम, कटुकाम्-मर्मवेधकारिणीम्, निष्ठुराम् नीरसाम् परुषाम्-चित्तोद्वेगकारिणीम्, एवम् 'अण्हयकरि छेयणकरि भेयणकरि' अनर्थकरीम् कर्माश्रवजननीम्, छेदनकरीम्-मर्मघातिनीम्, भेदनकरीम् हृदयविदारिणीम् 'परियावणकरिं उद्दवणकरि' परितापनकरीम्-मनसः परितापजननीम, अपद्रावणकरीम्-मर्मघातिनीम् एवं 'भूओवघाइयं अभिकंख नो भासिज्जा' भूतोपघातिनीम्-प्राण्युपतापजननीम् भाषाम्, अभिकाङ्क्षय मनसा पर्यालोच्य सत्यामपि नो भाषेत कहते हैं कि 'तहप्पगारं भासं सावजं सकिरियं' इस तरह की पूर्वोक्त स्वरूप सत्या भाषा भी यदि सावद्य गहर्य निन्दनीय है और अनर्थ कारक दण्ड प्रवृत्ति रूप क्रिया से युक्त है एवं 'ककसं कडुयं' कर्कश-अत्यन्त कठोर है और कटुमर्म को वेध करने वाली है और 'निटुर' निष्ठुर-निरस है और 'फरुसं' परुषचित्त को उद्विग्न करनेवाली है और 'अण्हयकरिं' अनर्थकरी अर्थात् कर्माश्रय की जननी है तथा 'छेयणकरि' छेदनकरी मर्मघातिनी है एवं 'भेयणकरि' भेदनकरी हृदयविदारिणी हैं अर्थात् हृदय को विदीर्ण करनेवाली है और 'परियावणकरि' मन को संतप्त करनेवाली है अर्थात् जिस भाषा को सुनकर मन में परिताप उत्पन्न होता है और जो भाषा 'उद्दवणकरि' अपद्रावण करी मर्मघातिनी है तथा 'भूओवघाइयं' भूतोपघातिनी-प्राणियों का उपताप जननी है इस प्रकार की भाषा को 'अभिकंख णो भासिज्जा' मन से विचार कर सत्य भी हो तो नहीं बोलना चाहिए अर्थात् साधु और साध्वी सत्य रूप भी ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करे जिस के प्रयोग करने से दूसरे को हार्दिक कष्ट पैदा એમાં મૃષા અને અસત્યા મૃષા એ બને ભાષાઓને પ્રયોગ સાધુ કે સાધ્વીએ કરવો नये नही. मे उतुथी 3 छ -'तह पगारं भासं सावज्ज सकिरिय' २॥ शतनी पूरित રૂપ સત્યાભાષા પણ જે સાવદ્ય ગહર્ય અને નીન્દનીય હોય અને અનર્થ કારક દંડ પ્રવૃત્તિ ३५ठियाथी युत डाय तय 'ककस कडुयं निठुरं फरुस' सत्यत ठी२ मने भभ वध डाय तथा नि२ डाय ५३१ अर्थात् पित्तने देश ४२नारी डाय तथा 'अण्हयकरि छयणकरि' मन ४२नारी डाय अर्थात् सिवन ५न्न ४२नारी डाय तथा छेदन ४॥ मर्थात ममातिनी डाय तथा 'भयणकरि परियावणकरिं' सहन ४Nमर्थात् इय ४ હોય એટલે કે હૃદયને વિદીર્ણ કરવાવાળી હોય તથા મનને સંતાપ કરાવનારી હોય अर्थात् २ मापाने सांगीर भनमा ५.२ता५ ५५ थाय छे. तया 'उबद्दवणकरिं भूओवघाइयं' रे भाषा अ५१ भातिनी राय तथा भूतपalan मर्थात् प्रालि योन सता५ ५माउनालय मेवी लापान 'अभि.कख नो भासिज्जा' भनथी पियार श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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