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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ स. २७ तृतीयं ईयांध्ययननिरूपणम् ५८५ उन्मार्ग संक्रामेत्, नो गहनं वा दुर्ग वा अनुप्रविशेत्, नो वृक्षे आरोहेत्, नो महति महालये उदके कार्य व्युन्सृजेत्, नो वाटं वा शरणं वा सेनां वा सार्थ वा काक्षेत्, अल्पौत्सुकः यावत् समाहितः ततः संयतमेव ग्रामानुग्राम दूयेत, स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा ग्रामानुग्रामं दूयमानः अन्तरा तस्य विहं स्यात्, स यत् पुनः विहं जानीयात-अस्मिन् खलु विहे बहवः आमोषकाः उपकरणप्रतिज्ञया संपिण्डिता आगच्छेयुः, नो तेषां भीतः उन्मार्गेण गच्छेत्, यावत् समाहितः ततः संयतमेव ग्रामानुग्राम येत ॥ सू० २७॥ टीका-सम्प्रति साधूनां निर्भयपूर्वकं यतनया गमनविधि प्रतिपादयितुमाह-'से भिक्खू चा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'गामाणुगामं दृइज्जमाणे' ग्रामानुग्रामम्-प्रामाद्प्रामान्तरम् दयमानः गच्छन् 'अंतरा से गोणं वा वियालं वा पडिवहे पेहाए' अन्तरा-मार्गमध्ये तस्य गच्छतः साधोः गाम् वा वृषभम्, व्यालं वा सपै लघुव्याघ्रम् वा प्रतिपथे प्रेक्ष्यअवलोक्य 'जाव चित्तचिल्लडं वियालं पडिवहे पेहाए' यावत्-सिंहं व्याघ्रं चित्रकम् तदपत्यभूतं वा व्यालं सपै शिशु व्याघ्रम् वा प्रतिपथे प्रेक्ष्य 'नो तेसि भीओ' नो तेषाम्-तेभ्यः सिंहव्याघ्रादिभ्यो भीतः त्रस्तः सन् 'उम्मग्गेणं गच्छिज्जा' उन्मार्गेण उत्पथेन गच्छेत्, 'नो मग्गामो उम्मग्गं संकमिज्जा' नो मार्गात् उन्मार्ग संक्रामेत्, 'नो गहणं वा वणं वा दुग्गं वा' अब साधु को निर्भयपूर्वक ही यतना से गमन करना चाहिये यह बतलाते हैं टीकार्थ-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा, गामाणुगामं दूइज्जमाणे' यह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी-साध्वी एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हो और ग्रामान्तर जाते हुए वह साधु 'अंतरा से गोणं वियालं' मार्ग के मध्य में यदि गाय बैल को या विडाल को अथवा व्याल सर्प को 'पडिवहे पेहाए जाव' देखकर एवं यावत् सिंह को या व्याघ्र को या 'चित्त चिल्लडं पडिवहे पेहाए जाव' चित्ता को प्रतिपथ मार्ग के सामने देखकर 'णो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छिज्जा' उन सिंह व्याघ्रादि से डर कर उन्मार्ग से गमन नहीं करे और 'णो मग्गाओ उम्मग्गं संकमिजा' मार्ग से उन्मार्ग में भी संक्र. मण नहीं करे, नहीं जाय 'नो गहणं वा, वर्ण वा, दुग्गं वा, अणुपविसिज्जा' હવે સાધુએ નિર્ભય રહીને યતના પૂર્વક ગમન કરવાનું કથન કરે છે. Astथ-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयमशील साधु , सामी 'गामा णुगाम दूइज्जमाणे' मे मथी मारे गाम ordi 'अंतरा से गोणं वियालं' भागमा ते साधु ने गाय, माने, 3 मिसान, सपने 'पडिवहे पेहाए' भाग मानधन 'जाव चित्तचिल्लडं वियालं पडिवहे पहाए' तथा यावत् सिर बाधने यित्ताने भागना पयमन 'यो तेसिं भीओ उम्मग्गेण गच्छिज्जा' ते स. १५ विगेरेथी उरीर मारे २५तेथी गमन ४२वुनी. तथा 'णो मग्गओ उम्मग्गा सकमिज्जा' भागभांथी मी भागमा पyr नही. तभ सभY ४२७ नही' तथा 'णो गहण या वणं वा' आ०७४ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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