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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. ३ सू० २६ तृतीयं ईर्याध्ययननिरूपणम् ५८३ श्रमणाः ! 'केवइए इत्तो गामस्स वा नगरस्स वा' कियरम् इतः ग्रामस्य वा नगरस्य या 'जाव रायहाणीए वा' यावत्-कर्बटस्य वा मडम्बस्य वा आकरस्य वा द्रोगमुखस्य वा आश्रमस्य चा राजधान्या वा मार्गों वर्तते ! 'से आइक्खह' तम् प्रामादिमार्गम् आचडूवम्-वदत ? 'तहेव जाव दूइज्जिज्जा' तयैव-उपर्युक्तरीत्यैव यावत्-दर्शयत ? तं नो आचक्षीत, नो दर्शयेत्, नो तस्य परिज्ञां परिजानीयात्,-अपितु तूष्णीक उपेक्षेत, जाननपि वा नो जानामि इति वदेत् ततः संयतमेव ग्रामानुग्रामं दृयेत- गच्छेत् ॥ सू• २६ ॥ हे आयुष्मन् ! श्रमण ! भगवन् साधु ! 'केवइए इत्तो गामे वा जाय-' यहां से कितने दूरमें ग्राम है यावत् कितने दूरपर नगर है या कितने दूरपर कर्षट छोटाग्राम है या कितने दूरपर मडम्ब छोटा नगर है या कितने दूरपर द्रोणमुख पर्यत की तलेटी है या कितने दूरपर आकर-खान है या कितने दूरपर आश्रम है या 'रायहाणी वा' कितनी दूरीपर राजधानी है ? 'से आइक्खह' उस ग्रामादि को आप बतलाइये ? और 'जाव दूइज्जिजा' ! यावत् दिखलाइये ! इस तरह पूछने पर साधु और साध्वी प्रामादि को नहीं बतलावे तथा नहीं दिखलाये, अपितु चूप हो कर मौन हो जाय या जानते हुए भी मै नहीं जानता हूं' ऐसा कहकर अपलाप करदे ऐसा अपलाप करने से संयम की विराधना नहीं होती प्रत्युत बतलाने से ही अनेकों दोष होने से संयमचिराधना होने की संभावना रहती है इसलिये संयमपालन पूर्वक ही एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाय, जिस से कि संयम चिराधना नहीं हो, 'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, गामाणुगामं दूइज्जमाणे' वह पूर्वोक्त भिक्षु-संयमशील साधु और भिक्षुकी-साध्वी एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हो और गामान्तर जाते हुए उस साधु को 'अंतरा से पाडिगहिया उवा ગામ કેટલે દૂર છે? અથવા યાવતું નગર કેટલે દૂર છે? અથવા કર્બટ-નાનું ગામ કેટલે દૂર છે. અથવા કેટલે દરમડંબનાનું નગર છે? અથવા કેટલે દૂર દ્રણમુખ અર્થાત્ પર્વતની તળેટી છે? અથવા કેટલે દૂર આકર અર્થાત્ ખાણ છે? અથવા કેટલે (२ माश्रम छ ? अथवा से २ २०४धानी छ ? 'से आइक्खह' ते मा भा५ કહો અને યાવત દેખાડે આ રીતે તે મુસાફર પૂછે તો સાધુ કે સાધ્વીએ ગામાદિ બતાવવા નહીં. કે કહેવું પણ નહીં. પરંતુ મૌન રહેવું અથવા જાણવા છતાં પણ અમે જાણતા નથી તેમ કહી દેવું તેમ કહેવાથી સંયમની વિરાધના થતી નથી. પરંતુ તે બતાવવાથી ઘણા દોષ લાગવાથી સંયમની વિરાધના થવાનો સંભવ રહે છે. તેથી सयम पासन पू४ 'जाव दूइज्जिज्जा' से मिथी भी म से भिक्ख वा भिक्खुणी वा ते पूरित सयमशी साधु भने साथी 'गामाणुगाम दुइज्जमाणे' २४ मथी मीरे गाम rdi 'अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा' से साधुने भागभाने 3 भुसा३२ भणे भने 'ते णं पाडिवाहिया एवं वइज्जा' ते भुसा३२ मेम पूछे -'आउ श्री आया। सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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