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________________ मर्म प्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ३ सू० २६ तृतीयं ईर्याध्ययननिरूपणम् ५७९ सिवं वा' सरीस्टपं वा' सर्पम्, 'जलयरं वा' जलचरं वा बकहंसादिकम् तर्हि 'से आइक्खह दंसेह' तम् मनुष्यादिकम् यंकमपि आचढ्वम्-वदत, दर्शयत इत्येवरीत्या प्रातिपथिका यदि पृच्छेयुस्तर्हि 'तं नो आइक्खिज्जा नो दंसिज्जा' तं मनुष्यादिकं नो आचक्षीत-चदेव नो वा दर्शयेत् साधुः अन्यथा संयमविराधना स्यातु, 'नो तस्स तं परिन्नं परिजाणिज्जा' नो तस्य प्रातिपथिकस्य ताम-पूर्वोक्ताम् परिज्ञां मनुष्यादिविषयिणी प्रतिज्ञाम् परिजानीयात् वदितुं स्वीकुर्यात्, अपितु 'तुसिणीए उवेहिज्जा' तूष्णीका मौनमालम्ब्य उपेक्षेत-उदासीनो भूत्वा उपेक्षां कुर्यात् 'जाणं वा नो नाणंति वइज्जा' जानन्नपि-मनुष्यादिकं जानानोऽपि नो जानामि इत्येवं साधुः वदेत् 'तओ संजयामेव गामाणुगाम दुइजिउज्जा' ततः तदनन्तरम् संयतमेव-यतनापूर्वकमेव-साधुःप्रमानुग्रामम-ग्रामाद् ग्रामान्तरम् येत-गच्छेत् ‘से मिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षु वा भिक्षुकी वा 'गामाणुगामं दइज्जमाणे' ग्रामानुग्रामम्-ग्रामाद 'सिरीसिवं वा' सरीसप सर्प छिपकली को या 'जलयरं वा' जलचर चक सारस हंस तथा मत्स्य कच्छप वगैरह सांधारण जलचर को देखा हो तो 'आइक्वह' कहिये ! और 'दंसह' दिखलाइये। इस प्रकार पूछने पर 'तं नो आइक्खिज्जा नो दंसिज्जा' साधु को नहीं बतलाना चाहिये और दिखलाना भी नहीं चाहिये ? अन्यथा संयम की विराधना होगी 'णो तस्सतं परिन्नं परिजाणिज्जा' इस तरह उस पथिक की मनुष्यादि विषयक प्रतिज्ञा को भी बतलाने के लिये स्वीकार नहीं करे 'तुसिणीए उहिज्जा' अपितु चुप होकर मौन धारण करे और उदासीन होकर उसकी उपेक्षा करदे 'जाणं वा नो जानंति यइज्जा, तओ संजयामेव गामाणु गामं दूइज्जिज्जा' और जानते हुए भी हम नहीं जानते हैं ऐसा बोल दे क्योंकि प्राणियों को बचाने के लिये अपलाप के समय मौन करने में कोई दोष नहीं होता, इसलिये संयम पूर्वक ही साधु और साध्वी को एक ग्राम से दूसरा ग्राम जाना चाहिये जिस से दोष न हो 'से अथवा 'सरीलिवं वा' सपन अथवा धान मथवा 'जलयर वा' सय२-१३, सारस, स विगेरे साधारण ४१५२२ मे डाय तो 'आइक्खह दंसेह' ! मन मार प्रमाणे | पूछे । 'तं नो आइक्खिज्जा' साधुसे ते मतावा नहीं तम हे पर नहीं नहीत२ सयमनी वियना थशे. २॥ रीते ये भुसा३२नी भनुष्या समधी 'नो तस्स तं परिन्नं परिजाणिज्जा' प्रतिज्ञान मतावा माटे स्पी।२ ४२३ नही परंतु 'तुसिणीए ज्वेहिज्जा' भीन २ही सीन 25 तेनी अपेक्षा ४२५० 'जाणं वा नो जानति वइज्जा' અને જાણતા હોય તે પણ નથી જાણતા તેમ કહી દેવું. કેમ કે પ્રાણિને બચાવવા भाटे असत्य ४ामा होष लागत नथी तथा 'तओ संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जिज्जा' સયંમ પૂર્વક જ સાધુ અને સાદેવીએ એક ગામથી બીજે ગામ જવું જોઈએ કે જેથી ५ मागे नही. 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयमशील सा भने साथी श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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