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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ३ सू० २४ तृतीयं ईर्याध्ययननिरूपणम् ५६७ त्या उद्दिश्य उद्दिश्य निर्दिश्य निर्दिश्य 'ओणमिय ओणमिय' अवनम्य अवनम्य 'उन्नमिय उन्नमिय' उन्नम्य उन्नम्य नो अङ्गुलिस् अवनम्य उन्नम्य वा 'निज्झाइज्जा' निध्यायेत् पश्येत्, एतावता वनादिकं साधुः भृशं बाहुमुक्षिप्य तथा अङ्गुलीः प्रसार्य कायमवनम्य उन्नम्य या नावलोकेत नापि दर्शयेत्, अन्यथा तेषां वप्रादीनां भ्रंशे साधुम्प्रति सन्देहः स्यात् 'नओ संजयामेव' ततः तस्मात् कारणात संयतमेव यतनापूर्वकमेव 'गामाणुगाम' ग्रामानुग्रामम् ग्रामाद् ग्रामान्तर 'दइजिज्जा' येत-गच्छेत्, ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षा भिक्षुकी वा 'गामाणुगामं' ग्रामानुग्राम-ग्रामाद् ग्रामान्तरं 'दइज्जमाणे' द्यमानः गच्छन् 'अंतरा से कच्छाणि चा' अन्तरा गमनमार्गमध्ये तस्य गमनं कुर्वतः साधोः कच्छा वा नदी समीपयतिनिम्नप्रदेशाः यदिस्युः 'दवियाणि वा' द्रविकाणि वा-अटवो मध्ये घासाद्यर्थ नृपतिकुलावरुद्धभूमयो वा स्युः 'नूमाणि वा' निम्नानि वा गर्तादीनि 'बलयाणि वा' वलकर उन वप्रादि को नहीं देखे एवं उन अंगुलियो को 'ओणभिय ओणमिय उन्नमिय-उन्नमिय निज्जाइज्जा' ऊपर उठाकर अथवा नीचे झुका कर भी नहीं देखे अर्थात् मार्ग के मध्य में आये हुए उन वप्रादिकों को साधु लोग बाहों को उठाकर अथवा अंगुलियों को फैलाकर या शरीर को ऊपर उठाकर या नीचे झुकाकर भी स्वयं भी नहीं देखे और दूसरेको नहीं दिखलावे क्योंकि कदाचित उन यमादि के ट्ट-फूट जाने से इन साधुओं पर संदेह होगा इसलिये 'तओसंजयामेव दूइज्जिजा' संयम पूर्वक ही साधु साध्वी एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाय, इसी तरह से भिक्खू वा, भिक्खुणि वा गामणुगामं दृइज्जमाणे' वह पूर्वोक्त वर्णित भिक्षु-साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हुए हाँ और 'अंतरा से कच्छाणि वा' मार्ग के मध्य में उस साधुको और साध्वी को यदि कच्छ अर्थात् नदी के समीप वर्ती नीचेका प्रदेश मिले अथया 'दरियाणि या द्रषिक अर्थात् जंगल के मध्य में घास वगैरह पैदा करने के लिये मांगनायोथी मतावान मे वाहन ने नही मथ4। 'ओणमिय ओणमिय' थे in. जायोन यी री , 'उन्नमिय उन्नमिय' नाय नमाया नमापीन 'निज्झाइज्झा' या નહીં. અર્થાત્ સાધુને ગામાન્તર જતાં રસ્તામાં આવેલા એ વપ્રાદિને હાથ ઊંચા કરીને કે આંગળીને ફેલાવીને કે શરીરને ઉંચુ કરીને કે નીચે નમાવીને પોતે પણ ન જુવે અને બીજાને પણ બતાવવું નહીં કેમ કે કદાચ એ વપ્રાદિને તૂટિકુટિ જવાથી એ સાધુઓ ५२ ५'४ थरी ३ तेथी 'तओ संजयामेव गामाणुगोम दुइज्जिज्जा' सयम ५४ ४ साधु सायीये मे गाभथी मारे मन मे प्रभाव से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' से पूर्वरित साधु मन माप साप 'गामाणुगाम दुइज्जमाणे' मे ॥मथी मारे जाम ndi 'अंतरा से कच्छाणि वा दवियाणि वा' भागभाने २७ अर्थात् नहीनी ना નીચાણવાળા પ્રદેશ આવે અથવા દ્રવિક અર્થાત્ જંગલમાં ઘાસ ઉગાડવા માટે રાજાએ श्री.सायाग सूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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