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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू० ८ तृतीयं ईर्याध्ययननिरूपणम् ५११ गच्छन् 'अंतरा से विरूवरूपाणि तस्य साधोः अन्तरा - मार्गमध्ये विरूपरूपाणि अनेकानि 'पच्चतिगाणि' प्रात्यन्तिकानि सीमासमीपवर्तीनि 'दस्सुगाययाणि' दस्युकायतनानि चौर स्थानानि 'मिलक्खूणि' म्लेच्छस्थानानि 'अणायरियाणि' अनार्याणि - अनार्यस्थानानि 'दुसन्नप्पाणि' दुःसंज्ञाप्यानि - दुःखेन संज्ञापयितुं शक्यानि दुरुच्चार्य नामानि 'दप्पन्नवणि जाणि' दुःप्रज्ञाप्याणि दुःखेन बोधयितुं शक्यानि दुर्बोध्यानि इत्यर्थः 'अकालपडिबोहीणि' अकालप्रतिबोधीनि असमय प्रतिबोधीनि निशीथमध्य रात्र्यादौ जागरणकर्तृणि 'अकालपरिभोईणि' अकालप्रतिभोजिनि असमय भोजनकर्तणि 'सइलाठे विहाराए' सति लाटे विहाराय विहारयोग्येषु 'संथरमाणेहिं जाणवएहिं' संस्तरमाणेषु जनपदेषु सत्सु नो विहारप्रतिज्ञया विहारार्थ 'पवज्जेजा गमणार' प्रतिपद्येत गमनाय, पूर्वोक्त दस्युस्थानेषु गन्तुं भिक्षु साधु और भिक्षुकी साध्वी एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हुए 'अंतरा से विवाई' उस साधु को मार्ग के मध्य में विरूपरूप अनेक प्रकार के 'पच्चतिगाणि' प्रात्यान्तिक सीमा के निकटवर्ती 'दस्सुगाययाणि' चौर दस्यु डाकू के स्थान मिलेंगे और 'मिलक्खुणी अणारियाणि' अनेकों मलेच्छों के स्थान होगें 'दुसन्नप्पाणि' अनेकों अनार्यों के स्थान होगें जिन स्थानों को हम ast कठिनाई से उच्चारण कर सकते है और 'दुप्पन्न वणिज्जाणि' जिन स्थानों का हम बोध या वर्णन भी नही कर सकते हैं और 'अकाल पडिवोहीणि' जिन स्थान में निशीथ दो पहर निशा रात्रि में जागने वाले रहते हैं एवं 'अकालपरिभोईणो' अकाल असमय में ही वे चोर डाकू लुटेरा कंसियारा वगैरह भोजन करने वाले होते हैं 'सइलाढे विहाराए' इस प्रकार के खतरे से भरे हुए स्थानों में विहार नही करना चाहिये अर्थात् विहार करने योग्य जनपदों के रहने पर ऐसे लुटेरे चोर डाकू से भरे हुए स्थानों के बीच से बिहार करना ठीक नहीं हैं क्योंकि 'संथरमाणेहिं जाणवएहिं' ऐसे चोर डाकू लुटेरे वे साधु और साध्वी टार्थ' - 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' से पूर्वोति साधु ने साध्वी 'गामाणुगामं दुइज्जमाणे' ये गाभथी मीने ग्राम नवा 'अंतरा से विरूवरूवाणि' मे साधुने भार्गभां अने! प्रहारना 'पच्चतिगाणि' प्रात्यान्ति सीमानी समीप 'दसुगाययाणि' थर सुटाना स्थाना तथा 'मिलक्खुणि' छोना भने स्थान भजे तथा 'अणारियाणि' मनायेना स्थानी तथा 'दुसन्नप्पाणि' ने स्थानाना नाम धणी भुडेसीथी हड़ी शहीये छी भने 'दुप्पन्नवणिज्जाणि' ने स्थानानु वाशुन पशु अरी शता नथी. तथा 'अकालपडिबोहीणि' भे स्थानामां मे पहर राते भगनारा थोर ने लुटा रहे थे भने 'अकालपरिभोइणो' અકાળમાં જ ચાર લુટારા વિગેરે ભજન કરતા હાયછે. આ પ્રકારના મુશ્કેલી ભર્યાં स्थानामा विहार नहीं' 'सइलाढे विहाराए संघरमाणेहिं' बिहार वा योग्य आहे શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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