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________________ आचारांगसूत्रे प्राणाः अनेकत्रसादिप्राणियुक्ताः 'बहुबीया' बहुबीजा:-अनेकबीजयुक्ताः 'जाव ससंताणगा' यावत्-पहुहरिताः बहदकाः बहूत्तिङ्गपनकद कमृत्तिकालूतातन्तुजालरूपसंतानयुक्ताः 'अण. भिकता पंथा' अनभिकान्ताः जनानां यातायातविरहेण अवरुद्धाः पन्थानः मार्गाः भवन्ति, अत एव हरिततृणाच्छादितत्वात् ‘णो विण्णाया मग्गा नो विज्ञाताः साधूमिः नो परिज्ञाताः मार्गाः भवन्ति तस्मात् 'सेवं णच्चा णो गामाणुगामं दुइज्जिज्जा' स साधुः एवम्-उपर्युक्तरीत्या वर्षासु अन्तराले मार्गस्य बहुप्राणिबीजहरिततृणादिभिराकीर्णत्वेन मार्गावरोधं ज्ञात्वा नो ग्रामम् ग्रामाद् ग्रामान्तरं गच्छेत् 'तओ संजयामेव' ततः तदनन्तरं मध्य में जाते हुए उस साधु के मार्ग-रास्ता 'बहुपाणा' बहुत प्रसादि प्राणियों से युक्त हो जाते हैं एवं 'जाव ससंताणगा' यावत् बहुत हरे भरे पत्ते घास वगैरह से युक्त हो जाते हैं और 'बहषीया' अनेक धीजों से युक्त हो जाते हैं बहुत ठंडे पानी से भर जाते है तथा बहुत से उत्तिङ्ग-ऊल तथा पनक छोटे छोटे कीटाणु लाल लाल चिटी-पिपरि वगैरह जीव जन्तुओं से युक्त हो जाते हैं तथा मकरे के जाल परम्परा से भी भर जाते है एवं मनुष्यों के यातायात बन्द हो जाने से अवरुद्ध हो जाते है इसलिये हरे हरे तृण घास वगैरह से आच्छादित हो जाने से साधुओं को उस मार्ग का पता भी नहीं चलता है और 'अणभिक्कंता पंथा णो विण्णायमग्गा' आनेका रास्ता भी पिजात नहीं हो पाता है इसलिये साधु उक्तरीति से वर्षाऋतु में अर्थात् चोमासा में रास्ते का मध्यभाग बहुत प्राणि बीजहरित घासतृण वगैरह से व्याप्त हो जाने से 'सेव णच्चा' मार्ग का अवरोध जानकर 'जोगामाणुगामं दूइजिज्जा एक ग्राम से दूसरे ग्राम नहीं जाय'तओ संजयामेव' अपितु संयत-संयम शील होकर ही यतना पूर्वक 'वासाचा तथा भाभा ना२॥ ये साधुन। भाग 'बहुपाणा' ५ साल प्रालियो वा मनी तय छ. तथा 'बहुबीया' मने मालथी युत थाय छे. 'जाव ससंताणगा' यावत् ॥ લીલેરી ઘાસ પત્તા વિગેરેથી યુક્ત થઈ જાય છે. તથા ઠંડા પાણીથી ભરાઈ જાય છે. તથા ઘણું ઉસિંગ-ઉલ તથા પનક નાના નાના જીવજંતુઓ તથા લાલ લાલ કીડિયે વિગેરે પ્રાણિયેથી યુક્ત થઈ જાય છે. તથા મકડાની જાળ પરંપરાથી પણ વ્યાપ્ત થઈ જાય છે. તથા માણસોનું ગમનાગમન બંધ થઈ જવાથી કાણુવાળે માર્ગ બની જાય છે તેથી લીલા લીલા ઘાસ વિગેરેથી ઢંકાઈ જવાથી સાધુઓને એ રસ્તાની ખબર પણ ५७ती नथी भने 'अणभिक्कंता पंथा णो विण्णायमग्गा' यानी २स्त। ५९ परिथित नया હિતે તેથી સાધુએ ઉક્ત પ્રકારે વર્ષાઋતુમાં અર્થાત્ માસામાં રસ્તે ઘણું પ્રાણી બીજે सीतातरी घास तृण विरथी व्याप्त पाथी 'सेवं णच्चा' भागनु । समलने 'णो गामाणुगाम दुइज्जिज्जा' मे मथी भीर म ४५वि२ ४२३ नही 'तओ संजयामेय' ५२'तु सयमा धन २१ यतन। 'वासावासं उवल्लिइज्जा' पण श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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