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________________ ४७२ आचारांगसूत्रे लेहिय पडिलेहिय, पमजिय पमजिय, आयायिय आयायिय, विधूणिय विधूणिय तओ संजयामेव पञ्चप्पिणेजा ॥५९॥ __ छापा-स भिक्षुर्वा । भिक्षुकी वा, अभिकाड्रक्षेत् संस्तारकं प्रत्यर्पयितुम्, स यत् पुनः संस्तारकं जानीयात् अल्पाण्डम् अल्पप्राणम् अल्पबीजम्, अल्पहरितम्, अल्पौषम् यावत् अल्पसन्तानकम् तथाप्रकारं संस्तारकम् प्रतिलिख्य, प्रमृज्य प्रमृज्य, आताप्प आताप्य, विधृय विधूय ततः संयत एव प्रत्यर्पयेत् ॥५९॥ ___टीका-अथ अल्पाण्डादिसहित संस्तारकं ज्ञात्वा प्रतिलेखनादिपूर्वकं गृहस्थाय प्रत्यर्पये. दित्याह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षु वा भिक्षुकी वा 'अभिकंखेज्जा' अभिकाइ क्षेत् 'संथारं पञ्चप्पिणितए' संस्तारकम् फलकादिकम् प्रत्यर्पयितुं-परावर्तयितुं यदि इच्छेत अथच 'से ज पुण संथारगं जाणिज्जा' स साधुः यत् पुनः वक्ष्यमाणस्वरूपं संस्तारकं जानीयात् तद्यथा-'अप्पड अप्पपाणं अप्पबीय' अल्पाण्डम् किञ्चिन्मात्राण्डसहितम्, अल्पप्राणम् . अब अल्प अण्डादि सहित संधरा को देखकर प्रतिलेखनादि पूर्वक ही गृहस्थ को वापस करे यह बतलाते हैं____टीकार्थ--‘से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा अभिकंखेजा संथारगं पच्चप्पिणि. त्तए' वह पूर्वोक्त भिक्षु सयमवान् साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि फलकादि संथरा को वापस करना चाहते हो तो-'से जं पुण संथारगं जाणिज्जा' यदि वह साधु और साध्वी ऐसा वक्ष्पमाणरूप से जान ले कि यह पाट फलकादि संस्तारक संथरा 'अप्पंड' अल्पाण्ड अण्डों से युक्त नहीं है अथवा थोडे ही अण्डे वाला हैं एवं 'अप्पाणं' थोडे ही प्राणियों से युक्त है या प्राणियों से रहित है क्योंकि अल्पशब्द यहाँ पर ईषत् अर्थक नार्थ में लाक्षणिक होने से अभावार्थक ही माना जाता है इसलिये अण्डरहित प्राणि रहित 'अप्पबीयं' बीज रहित इत्यादि अर्थ समझना चाहिये एवं 'अप्पहरियं' अल्प हरित हरे भरे पत्ते घास तृण वगैरह હવે અલ્પ અંડાદિવાળે સંથારે હોય તે તે જોઈને પ્રતિલેખનાદિ કરીને ગૃહસ્થને પાછા આપવા સંબંધી કથન કરે છે. 2014-'से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयमशीतसाधु भने साथी 'अभिकंखेज्जा संथारगं पच्चप्पिणित्तए' ने साहस थाराने पाछ। २॥५५॥ २ छ त। 'से जं पुण संथारगं जाणिज्जा' ते साधु भने साथीना लामा समाव , 'अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरिय' २॥ पाट ३३४ सथा। २५६५13-मर्थात् . पिनाना छे । જ ઇંડાઓવાળે છે. તથા થોડા જ પ્રાણિવાળે છે કે પ્રાણિયો વિનાને કેમ કે અહીંયા અ૫શબ્દ ઈષદ્ અર્થક નબ અર્થમાં લાક્ષણિક હોવાથી અભાવાર્થકજ માનવામાં આવે છે. તેથી ઇડાઓ વિનાને પ્રાણિ વિનાને બી વિનાને વિગેરે અર્થ સમજે તથા અ૫હરિત श्री माया सूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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