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________________ आचारांगसूत्र दोषदुष्टं 'जाव' यावत्-मन्यमानः संयमविशयकत्वात् ‘णो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयात्, अन्यथा शय्यातरस्य गृहे भिक्षाग्रहणे संयमविराधना स्यात् तस्मात् शय्यातरस्य नामगोत्रज्ञानेन भिक्षामटितुं तद्गृहे न गच्छेत् ।। सू० ३९॥ ___मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सए जाणिज्जा ससागारियं सागणियं सउदयं णो पण्णस्स णिक्खमणपवेसणाए णो पपणस्त वायण जाय चिंताए, तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेज्ज वा णिसीहियं वा चेतेज्जा ॥सू० ४०॥ __छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा स यदि पुनः उपाश्रयं जानीयात् स सागारिकं साग्निकं सोदकं न प्राज्ञस्य निष्क्रमणप्रवेशाय यावद् अनुचिन्तयै, तथाप्रकारे उपाश्रये नो स्थानं वा शय्यां वा निषीधिको वा चेतयेत् ॥ सू० ४० ॥ टीका-'सम्प्रति गृहस्थादि युक्तोपाश्रये साधनां वासनिषेधं प्रतिपादयितुमाह-'से भिक्खु वा भिक्खुणी वा स भिक्षुर्वा भिक्षुकी का 'साधुर्वा साध्वी वा 'से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा' स यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या उपाश्रयं जानीयात् तद्यथा 'ससागारियं स सागारिकम् स गृहस्थम् स परिवारगृहस्थयुक्तम् 'सागणियं साग्निकम् अग्निसहितम् 'सउदयं' सोदकम् शीनोदकसहितम् उपाश्रयं यदि जानीयादिति पूर्वेणान्वयः तर्हि 'णो पण्णस्स' नो प्राज्ञस्य लेना चाहिये, अन्यथा शय्यातर के घर में भिक्षा लेने पर संयम विराधना होगी इसलिये शयपातर के नामगोत्र जानकर भिक्षा के लिये उस के घरमें नहीं जाय ॥ ३९॥ गृहस्थ वगैरह से युक्त उपाश्रय में साधु को नहीं रहना चाहिये यह बतलाते हैं टीकार्थ-'से भिक्खू वा भिक्खूणी चा से जं पुण उवस्मयं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षुक और भिक्षुकी, जैन साधु और जैन साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से उपाश्रय को जानले कि 'ससागारियं' यह उपाश्रय ससागारिक गृहस्थ परिवार से युक्त है एवं 'सागणियं' साग्निक-अग्नियुक्त है तथा 'सउदयं' सोदक कच्चा पानी से भी युक्त है तो इस प्रकार के उपाश्रय में 'णो पण्णस्स નહીં. કારણ કે શય્યાતરને ત્યાંથી આહાર લેવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી શયાતરના નામગાત્ર જાણીને ગેચરી માટે તેના ઘેર જવું નહીં ! સૂ. ૩૯ છે હવે ગૃહસ્થ વિગેરેથી યુક્ત ઉપાશ્રયમાં સાધુ એ ન રહેવા વિષે સૂત્રકાર કથન કરે છે -से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयमशील साधु ने साथी से जं पुण उबस्सयं जाणिज्जा' R. 2. पक्ष्यमा २थी उपाश्रयने any , ॥ उपाश्रय 'ससागारिय' ससा॥२४ मेट , स्थन। परिवारथी युत छ. तथा 'सागणिय" माम युत छ. तथा 'सऊदय' या वीथी ५५ युक्त छ. तो मा शतना ५॥श्रयमां 'णो पण्णस्स णिक्खमणपवेसणाए' प्रामा-सयभार साधुन ना3040 मने प्रवेशयान योग्य श्री आय॥२॥ सूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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