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________________ ३९४ आचारांगसूत्रे श्राद्धाः प्रकृतिभद्रकाः श्रावकाः श्रद्धालवो गृहस्था वा, तदाह- 'तं जहा - गाहावइ वा' तद्यथागृहपति 'गाहावइभारिया वा' गृहपतिमार्या वा 'जाव कम्मकरीओ वा' यावत् - गृहपतिपुत्रो वा गृहपतिदुहिता वा गृहपतिस्नुषा वा, पुत्रवधू वा धात्री वा दासो वा दासी वा कर्मकरी वा परिचारिका रूपा, 'तेसिं चणं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवई' तेषाञ्च खलु गृहपतिप्रभृति श्राद्धानाम् आचारगोचर: जैन साध्वाचारविचार: जो सुनिश्रितो भवति सुनिचितरूपेण ज्ञातो न भवतीत्यर्थः किन्तु 'तं जाव रोयमाणेहिं' तं जैनसाधुम्प्रति यावत्श्रद्दधानैः श्रद्धावद्भिः प्रतीयमानैः रोचमानैः प्रीति कुर्वद्भिः तैः श्राद्धैः 'बहबे समणमाण अतिहिविणवणीमए' बहून् श्रमण ब्राह्मण अतिथिकृपणवनीपकान्-शाक्य चरकप्रभृतिश्रमणान् ब्राह्मणान, अतिथीन् कृपणान् वनीपकान् दीनयाचकदरिद्रान 'समुद्दिस्स' समुद्दिश्य श्रमणादि समुद्देशेन 'तत्थ तत्थ अगारीहिं' तत्र तत्र - अत्यावश्यकतत्तत् स्थल विशेषे यहां पर पूर्व दिशा में या पश्चिम दिशा में या दक्षिण दिशा या उत्तर दिशा में कोई एक श्राद्ध भावुकजन होते हैं जैसे कि गृहपति हो सकता है या गृहपति की भार्या हो सकती है या यावत् गृहपति का पुत्र या गृहपति की कन्या या गृहपति की पुत्रवधू या दासदासी या कर्मकर नोकर या कर्मकरी नोकरानी हो सकती है - 'तेसिं च णं आधारगायरे णो सुनिसंते भवइ' - किन्तु उन गृहपति वगैरह श्रद्धालु श्रावक गृहस्थों को जैन साधुओं का आचार विचार सुनिश्चित रूप से ज्ञात नहीं होने पर भी 'तं जाव रोयमाणेहिं' उन जैन मुनि महात्माओ के प्रति उत्पन्न श्रद्धाभक्ति होने से यावत् आदरप्रीति करते हुए वे गृहपति अत्यन्त श्रद्धालु प्रकृति भद्र श्रावक गृहस्थ वगैरह बहुत से सागारिक- 'बहवे समणमाहण अतिहिhिaण वणीम' श्रमण चरकशाक्य वगैरह साधु मुनियों को उद्देश करके एवं बहुत से ब्राह्मणों अतिथिओं कृपणों दीन-दुःखियों तथा वनीपकों याचकों कों भी 'सम्मुदिस्स तत्थ तत्थ उद्देश कर उन उन आवश्यक स्थलो में 'अगारिहिं अर्थ मे श्रद्धालु श्री होय छे. 'तं जहा ' प्रेम 'गाहावइ वा गाहावई भारिया वा ' गृहपति हाय गृहपतिनी पत्नी होय अथवा 'जाव कम्मकरीओ वा' यावत् गृहपतिना પુત્ર હાય કે ગૃહપતિની કન્યા ાય કે નૃપતિની પુત્રવધૂ હાય અથવા ગૃહપતિને દાસ હાય કે દાસી હાય અથવા કકર નાકર હાય કે ક કરી નેકરાણી હાય ‘તેäિ ૨ णं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवइ' परंतु मे गृहयति विगेरे श्रद्धालु श्राव गृहस्थाने સાધુઓના આચાર વિચાર નિયમની સુનિશ્ચિતપણે જાણકારી ન હોવા છતાં પણુ ‘તે નાય रोयमाणेहिं' से नैन मुनियोनी अत्ये अत्यंत श्रद्धा होवाथी यावत् शहर सन्मान उरीने ते गृहपति विगेरे अत्यंत श्रद्धा प्रतिलम् श्राव: गृहस्थ विगेरे 'बहवे समण माहण अतिहि किवणवणीमए समुद्दिस्स' सामारिए प्राणा श्रम - २४शाहय विगेरे साधु સુનિયાને ઉદ્દેશીને તથા ઘણા બ્રાહ્મણે અતિથિા દીનદુ:ખિયે તથા વનીપા અર્થાત્ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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