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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू० १२-१३ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् २९ साधर्मिकीः साध्वीः समुद्दिश्य चतुर्थालापको वक्तव्य इति सर्वेषामालापकानां सम्मेलनेन चत्वार आलापका भणितव्याः वक्तव्या इत्यर्थः एकत्वबहुत्वाभ्याम् एकबहुसार्मिकसाधुविषयकमालापकद्वयम्, एवमेकत्वबहुत्वाभ्याम् एक बहुसाधर्मिकी साध्वीविषयकञ्चालापकद्वयमिति चत्वार आलापका भवन्तीति बोध्यम् ।।सू० १२॥ मूलम्-से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, गाहावइकुलं जाव पविटे समाणे से जं पुणजाणिजा, असणं वा, पाणं वा, खाइमं साइमं वा वा, बहवे समणमाहण अतिहि किवण वणीमए पगणिय पगणिय समुदिस्त पाणाई वा, भूयाइं वा, जीवाइं वा, सत्ताइं वा, जाव समारब्भ आसेवियं वा अफासुयं अणेसणिज्जं मण्णमाणे लाभे संते जाव णो पडिगाहिज्जा ॥सू० १३॥ छाया-स भिक्षुको वा, भिक्षुकी वा, गृहपतिकुलं यावत् प्रविष्टः सन् स यत् पुनः जानीयात्, अशनं वा, पानं वा, खादिमं वा, स्वादिमं वा, बहून् श्रमणान् ब्रह्मणान् अतिथीन् कृपणवनीपकान् प्रगणय्य प्रगण यय समुद्दिश्य प्राणिनो वा, भूतानि वा, जीवान् वा, सत्त्वान् साहम्मिणीओ' बहुतों सामि की साध्वियों को 'समुहिस्स' उद्देश करके चोथा आलापक समझना चाहिये अर्थात् पूर्वोत्तरीति से जैसे पहले एक साधर्मिक साधु को उद्देश करके प्रथम आलापक वह भावभिक्षु या भाव भिक्षुकी भिक्षा के लिये गृहपतिके घर में अनु प्रवेश कर उक्त प्रकार के विशुद्धाविशुद्ध कोटिक आहार जात को अप्रास्सुक-सचित्त और अनेषणीय आधाकर्मादि दोषों से युक्त समझकर उस तरह की भिक्षा मिलने पर भी उसे नहीं ग्रहण करें ऐसा प्रथम आलपक पूर्व सूत्र में कहा गया है वैसे ही अनेक सार्मिक साधुओं को उद्देश करके द्वितीय आलापक और एक सार्मिकी साध्वी को उद्देश करके तृतीय आलापक और अनेक साधर्मिकी साध्वियों को उद्देश करके चतुर्थ आलापक ‘एवं बहवे साहम्मिया एगा साहम्मिणी' घणु सायमि४ साधुमान ७६२२ मनात भाडा समधीजीले मासा समय तथा 'एग साहम्मिणी' से सामिती सपी देशान मनावेस मा२ समाधीत्री माला५४ तथा 'बहवे साहम्मिणीओ समुहिस्स' ५७ साधमिती सावी याने देशीने मनास माहार समधी थे.थेमाता५४ से ते 'चत्तारि आलावगाभाणियव्वा' से शते या२ मा५। समापन अर्थात् पूर्वात शते २५ से સાધુને ઉદ્દેશીને પહેલા આલાપક દ્વારા તેવા પ્રકારના આહાર જાતને અપ્રાસુક અનેષણીય આધાકર્માદિ દેષવાળે માનીને તે આહાર મળે તે પણ ન લે તેમ નિષેધ કરેલ એજ પ્રમાણે અનેક સાધર્મિક સાધુને ઉદ્દેશીને બનાવવા સંબંધી બીજે આલાપક તથા અને એક સાધી સંબંધી ત્રીજા આલાપક અને અનેક સાધ્વીને ઉદ્દેશ સંબંધી ચેથા આલાપકને श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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