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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. १ सू० ७ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ३३५ श्रये 'अपुरिसंतरकडे' अपुरुषान्तरकृते न पुरुषान्तरनिर्मिते दातृपुरुषनिष्पादिते 'पहिया अनीहडे' बाहिरनिहते बहिरुपयोगाविषये अनिसि? अनिसृष्टे-सर्वस्वाम्यननुमते 'जाव' यावत् अपरिमुक से 'अणासेविए' अनासे विते उपभोगाविषये उपाश्रये इति पूर्वेणान्वयः ‘णो ठाणं या सेवा निसीहियं वा' नो स्थान वा कायोत्सर्गस्थानम् शय्यां वा संस्तारकम् करके विछाता हो एवं विषम रूप से बिछाई हुई शय्या को सीधा करने के लिये समरूप से बिछायी जाती हो एवं प्रवात शय्या को निर्यात शय्या की जाती हो अर्थात् अधिक पवन से साधु को बचाने के लिये अधिक पवन को सामने से हटाकर बिलकुल ही कमती आनेवाले पवन के तरफ की जाती हो और उपाश्रय के हाता के अन्दर या बाहर हरेभरे घास की छीलचाल कर साफ सुथरा करके संस्तारक शय्या संथरा को विछावे अथवा 'बहिया वा णिण्णक्खु' उपाश्रय से बाहर ही ले जाय अर्थात विछाना को सुखाने के लिये या झारने के लिये बाहर निकालता हो ऐसा देखकर या जानकर 'तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे' इस प्रकार के उपर्युक्त उपाश्रय में जो अपुरुषान्तरकृत है अर्थात् दाता से ही निष्पादित है और 'बहिया अनीहडे' उसका बाहर भी उपयोग नहीं किया गया है और 'अणिसिढे जाव' सभी स्वामी अधिकारी से अनुमत स्वीकृत भी नहीं है एवं यायत-'अणासेविए' उस उपाश्रय का उपभोग भी किसी मी साधु ने नहीं किया है और आसेवित भी नहीं है अर्थात् किसी साधुने इस उपाश्रय का इस्तेमाल भी नहीं किया है इसलिये इस तरह के उपाश्रय में ध्यान के लिये 'णो ठाण वा' स्थान ग्रहण नहीं करना चाहिए एवं 'सेज्जं वा शयन के लिये संधरा को भी नहीं बिछावे तथा 'णिसीहियं या चेइज्जा' स्वाध्याय करने આરામ મળશેએ ભાવનાથી સરખી રીતે પાથરેલ શયાને વિષમ રીતે ઉંચાનીચા કરીને પાથરતા હોય અને વિષમ રીતે પાથરેલ શયાને સીધી કરવા માટે સરખી રીતે પાથરવામાં આવતી હોય પવનવાળા પ્રદેશમાં આવેલ શાને પવન વિનાના પ્રદેશમાં કરાતી હેય અર્થાતુ વધારે પવનથી સાધુને બચાવવા માટે વધારે પવન તરફથી હટાવીને બિલકુલ थोड ५१ लागे तेम पाती हाय तथा 'बहिया वा णिग्णक्खु' पाश्रयन मन ભાગમાં કે બહાર લીલા ઘાસને ઉખાડી લઈને સાફસુફ કરીને શય્યા બિછાવે કે ઉપાશ્રયની બહાર લઈ જાય અર્થાત પથારીને સુકવવા માટે કે ઝાટકવા માટે બહાર કહાડતા હોય એ प्रमाणे निधन की 'तहप्पगारे उबस्सए' से शतना उपयुत उपायम २ ५३षान्तरकृत नथी अर्थात हाताये। मनास छ तथा 'बहिया अनीहडे' महार पण तना 6५५ ४२पामा मावस न डाय 'अनिसिट्रे' तथा ५५ मानिये मनुमति मापेस नाय 'जाव अणासेविए' तथा यावत् से पाश्रयने। 8५। ५५५ साधुणे ४२ नाय तेथी मासेपित ५५ न हाय तथा माया प्रारना GIश्रयमा 'णो ठाणं वा सेन्ज' या' यान भाट शयन भाट स्थान अ५ ४२७ नही' तथा 'निसीहियं वा श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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