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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू० ६ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ३३१ वर्तते, 'संसढे वा' संसृष्टो वा भूमिकर्मादिभिः संस्कृतः 'संपधूमिए वा' संप्रधूपितो वा-दुर्गन्धाद्यपनयनाय धूपादिभिः सुगन्धिमिः धृपितो तहप्पगारे' तथाप्रकारे तथा विधे उपयुक्तरूपे 'उपस्सए' उपाश्रये-प्रतिश्रये, 'अपुरिसंतरकडे' अपुरुषान्तरकृते असंयतदातृनिर्मिते 'बहिया अनीहडे' बहिरनिहते 'अपरिभुत्ते' अपरिभुक्ते 'जाव अनासेविए' यायत-अनासेविते उपाश्रये इति पूर्वेणान्धयः 'णो ठाणं वा सेज्ज वा निसीहियं वा' नो स्थानं वा कायोत्सर्गस्थानमा. शय्यां वा संस्तारकस्थानं, निपीधिकाम् वा-स्वाध्यायभूमि वा 'चेइज्जा' चेतयेत्-कुर्यात, तथासति अप्रामुकत्वेन आधाकर्मादिदोषदुष्टत्वेन च संयमात्मविराधकलसंभवात किन्तु एवं मृष्ट लेपन वगैरह से लीपकर समतल किया है तथा संमृष्ट-भूमिकर्म वगैरह संस्कृत परिमार्जित किया है अथवा संमधूपित-दुर्गन्ध वगैरह को दूर करने के लिये धूप अगर तगर वगैरह से सुवासित किया है 'तहप्पगारे उपस्सए' इस प्रकार के उत्तरीति से साधु साध्वी के लिये सजाये गये उपाश्रय में जिस को कि 'अपुरिसंतरकडे अपुरुषान्तरकृत दाता असंयत गृहस्थ श्रावक ने ही बनाया है एवं जो कि 'बहिया अनीहडे' बहिः अनिहत-बाहर भी उपयोग में नहीं लाया गया है तथा 'अपरिभुत्ते जाव' अपरिभुक्त-दूसरे किसी ने भी अभीतक उपभोग नहीं किया है एवम् यावत्-तदर्थिक-उसी साधु के निमित्त बनाया गया है तथा 'अनासेविए' अनाले वित-दूसरोंने उसका इस्तेमाल भी नहीं किया, इस तरह के उपाश्रय में 'णो ठाणं वा स्थान-ध्यान रूप कायोत्सर्ग के लिये आवास नहीं करना गहिये एवं 'सेज्जं वा' शय्या-संस्तारक-संथारा बिछाने के लिये भी वास नहीं करना चाहिये तथा 'निसेहियं वा चेइज्जा' निषेधिका-स्वाध्याय के लिये भी भूमि आवास नहीं करना चाहिये क्योंकि युन विशेथी घाणेर य तथा 'मढे वा संसट्टे वा संपधूमिए वा' भृष्ट अर्थात् पन વિગેરેથી લીપીને સમતલ સર કરેલ હોય તથા સંસષ્ટ-ભૂમિકર્મ વિગેરેથી સંસ્કૃત અર્થાત્ વાળીચોળીને તૈયાર કરેલ હોય અથવા સંપ્રદૂષિત અર્થાત્ દુર્ગધ વિગેરેને દૂર ४२५॥ भाट ५५ विगेश्थी सुवासित ४२ हाय 'तहप्पगारे उवस्सए' २॥ प्रमाणे पूर्वरित शते साधुन भाट समवेद उपाश्रयमा २ उपाश्रय 'अपुरिसंतरकडे' ५५३५ान्तरकृत मर्यात होताये अर्थात् असयत श्राप ५ मनावे डाय तथा 'बहिया अनीहडे' माह मानित-मर्यात महा२ मा सावद न डाय तथा 'अपरिभुत्ते जाव अनासेविए' બીજા કોઈએ પણ અત્યાર સુધી ઉપર કરેલ ન હોય તથા યાવત તદકિ–એ જ સાધુ માટે બનાવવામાં આવેલ હોય તેમજ બીજાઓએ તેને ઉગ કરેલ ન હોય माया र पाश्रयमi णो ठाणं वा सेज्ज वा' स्थान-यान३५ यास भाटे નિવાસ કરે નહીં તેમજ શા-સંસ્તારક સંથારો પાથરવા માટે પણ વાસ કરશે નહીં 'निसीहिय या चेइज्जा' निमामि स्वाध्याय भाटे ५५ यi नपास ४२३॥ नही : श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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