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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. १ सू० ५-६ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ३२९ एवं भूते उपाश्रये 'पडि ले हित्ता पडि लेहित्ता' प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य पौनः पुन्येन प्रतिलेखनं कृखा 'पपज्जित्ता' प्रमृज्य-प्रमार्जनं विधाय तो संजयामेव' ततः तदनन्तरम् संयतः एव संयमयतनापालनतत्परो भूत्वा 'ठाणं वा सेज्ज वा' स्थानं वा कायोत्सर्गस्थानं, शय्यां या संस्तारकस्थानम् ‘णिसीहियं का' निपीधिकां वा स्वाध्यायभूमि 'चेतेज्जा' चेतयेत् तथासति जीवादि समारम्भाभावेन तत्र स्थितिकरणे संयमात्मविराधनाऽसंभवात् ॥ सू० ५॥ मूलम्-से भिक्खू वा भिक्षुणी वा से जं पुण उपस्सयं जाणिज्जा, असंजए भिक्खुपडियाए कडिए वा उक्कंबिए वा छन्ने वा लित्ते या घटे या मट्टे वा संसट्टे वा संपधूमिए वा, तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे बहिया अनीहडे अपरिभुत्ते जाव अणासेविए, णो ठाणं वा सेज्जं वा, णिसीहियं वा चेतेज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडे बहिया नोहडे परिभुत्ते जाव आसेविए पडिलेहित्ता पमजित्ता तो संजयामेव ठाणं वा सेज्जं वा जाव चेतेजा ॥सू० ६॥ छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा स यदि पुनरेवम् उपाश्रयं जानीयात्, असंयतो भिक्षुकिया गया है ऐसा देखकर या जान कर इस प्रकार के उपाश्रय में 'पडिलेहित्ता' पडिलेहित्ता' बार बार प्रतिलेहन अर्थात प्रतिलेखन करके और 'पमजित्ता पमन्जित्ता' ओघा से प्रमार्जन करके 'तओ संजयामेव संयत आर्थातू संयम यतना का पालन करने में तत्पर होकर 'ठाणं वा' ध्यानरूप कायोत्सर्ग के लिये स्थान को ग्रहण करे तथा 'सेज्जं वा' शय्या-संथरा बिछाने के लिये भी स्थान ग्रहण करे एवं 'निसीहियं बा चेत्तेजा' निषीधिका स्वाध्याय के लिये भूभी भि. ग्रहण करे क्योंकि इस तरह के पुरुषान्तरकृत तथा बाहर लाया गया एवं परिभुक्त तथा आसेवित उपाश्रय में रहने से जीय वगैरह की हिंसा का संभव नहिं होने से साधु और साध्वी को संयम आत्म बिराधना नहीं होगी ॥सू० ५॥ ४२1 6 पाश्रयमा पडिलेहित्ता पडिलेहित्ता' पावा२ प्रतिवेमन ४शन तथा पमज्जित्ता पमज्जित्ता साधाथी प्रमान श२ 'तओ संजयामेव' सयम यतनानु पासन यामा तत्५२ ने 'ठाणं वा' ध्यान३५ ४ायोत्सग माटे स्थान प्राणु ४२ तथा 'सेज्जं वा निसीहिय वा चेतेज्जा' शव्या-सथा। पाय२॥ माटे ५९मे। प्रा२ थान १५ ४२७ તેમજ નિષાધિકા-સવાધ્યાય માટે પણ ભૂમિ ગ્રહણ કરવી કેમ કે આ રીતે પુરૂષાન્તરકૃત તથા બહાર લાવવામાં આવેલ તથા પરિભક્ત તથા આસેવિત ઉપાશ્રયમાં રહેવાથી જીવ વિગેરેની હિંસાને સંભવ ન હોવાથી સાધુ કે સાધ્વીને સંયમ આત્મ વિરાધના यती नथी. ॥ सू. ५॥ आ०४२ श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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