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________________ २२ आचारांगसूत्रे यितुमाइ-से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, जाव पविढे समाणे नो अन्नउत्थियस्स वा' इत्यादि, स पूर्वोक्तः संयमशीलो भिक्षुकः-भावभिक्षुकः साधुर्वा, भिक्षुकी वा, यावद् गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टः सन् गृहपतिकुलप्रवेशस्योपलक्षणत्वाद् उपाश्रयस्थो या नो अन्यपृथिकस्य अन्यतीथिकस्य, अन्यतीथिंकेभ्यः इत्यर्थः चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, सम्बन्धसामान्ये या षष्ठी बोध्या, एवं गृहस्थस्य वा-आगारिकस्य, आगारिकेभ्यो गृहस्थेभ्य इत्यर्थः, अत्रापि पूर्ववदेव षष्ठी बोद्धव्या । एवं पारिहारिको वा उद्युक्तविहारी साधुः, अपारिहारिकस्य, अपारिहारिकेभ्यः कुशीलसंसक्तस्वच्छन्दचारिभ्यः इत्यर्थः, अशनं वा, पानं वा, खादिमं वा, स्वादिमं वा चतुर्विधम् आहारजातं स्वयमपि न दद्यात्, नापि गृहस्थादिना अन्येन या अनुदापयेदित्यर्थः । संयमविराधकत्वात् । तथाहि अन्यतीथिकादिभ्यो दीयमानं दाप्यमानं वा अशनादिकं दृष्ट्वा लोकः इत्थमभिमन्यमानो भवति यत्-इमे अन्यतीथिका एवं चतुर्विध आहार जात स्वयं भी नहीं दें और दूसरों से दिलावें भी नहीं यह बतलाते हैं-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव' स-वह भाव भिक्षु और भिक्षुकी यावत् गृहपति गृहस्थ श्रावक के घर में भिक्षा लेनेकी आशा से 'पविढे समाणे' अनुप्रविष्ट होकर या उपाश्रय में ही रहकर 'से णो अण्णउत्थियस्स वा अन्ययूथिक-अन्यतीर्थिक साधु को या 'गारत्थियस्स वा' गृहस्थ श्रावक को एवं 'पारिहासिओ वा' पारिहारिक साधु 'अपारिहारियस्स' अपारिहारिक साधु को 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशन पान खादिम और स्वादिम चतुर्विध आहार जात स्वयं भी 'णो देज्जा' नहीं दे और 'अणु. पदेज्जा वा' दिलाये भी नहीं क्योंकि इस तरह अन्य तीथिक वगैरह को अशनादि देने से या दिलाने से संयम विराधना दोष हो सकता है क्योंकि इस प्रकार के अन्य तीथिक बगैरह का पूर्ण संयमशाली भाव साधु के द्वारा अशनादि देने या दिलाने के कारण उनके सत्कार सम्मान आदर को देखकर હવે સાધુ સાધ્વીએ અન્યતીથિકોને અશનાદિ ચતુર્વિધ આહાર જાત પિતે ન આપે मन भी पासे 941440 समयमा सूत्रा२ ४ -से भिक्खुवा भिक्खुणीवा' पूारत लिक्षु अथवा मी 'जाव' यावत् श्रावन १२ HAL भगवानी ४२छाथी 'पविटे समाणे प्रवेश परीने म241 उपाश्रयमा खीर से णो अण्णउत्थियस्स वा' सन्यतावि साधुन मया 'गारत्थियस्सवा' गृहस्थ श्रावने तथा 'पारिहारिओवा' पारिवारि साधु 'अपारिहारियस्सवा' मारिहा२४ साधुने 'असणं वा पाणं वा खाइमं साइमं वा' अशन्धान माम मन स्वाहिम यतुविध मा२ nd ‘णो देज्ज अणुपदेज्ज वा' पोते मापे नही અને બીજા પાસે અપાવે પણ નહીં, કેમકે આ રીતે અન્યતીર્થિક વિગેરેને અનાદિ આપવાથી અથવા અપાવવાથી સંયમ વિરાધના દેષ લાગે છે કેમકે આવા પ્રકારના श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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