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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ९ सू. ९८-९९ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् २५३ ग्रहणार्यम् प्रविष्टः सन् 'अण्णयरं भोयण जायं अन्यतरद्-अशनादि यत् किमपि अन्यतमद् भोजनजातम्-आहारजातम् 'पडिगाहित्ता' प्रतिगृह्य-गृहीत्वा तत्र यदि मुभि मुभि भोच्चा' सुरभि सुरभि-सुगन्धयुक्तमशनादिकं भुक्त्वा 'दुभि दुभि परिहवेइ संफासे' असुरभि असुरभि -दुर्गन्धयुक्तमशनादिकं परिष्ठापयेत्-परित्यजेत् तर्हि 'माइट्ठाणं संफासे' मातृस्थानं संस्पृशेत्मायाछलकपटादिदोषयुक्तो भवेत् तस्मात् संयमात्मविराधनाभयात् ‘णो एवं करिज्जा' नो एवं कुर्यात्- दुर्गन्धभशनादिकं परित्यज्य न सुरभि युक्तमेव भुञ्जीत, आपि तु 'सुभि वा दुभि वा' सुरभिर्वा असुरभि वा 'सव्वं भुजे' सर्व भुञ्जीत ‘णो किंचि वि परिदृविज्जा' नो किश्चिदपि परिष्ठापयेत्-परित्यजेत, तथा भक्षणे मायाछलकटादिदोषदुष्टत्वेन संयमात्मविराधना स्यात् ।। सू० ९८॥ मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव पविटे समाणे अण्णयरं वा पाणय जायं पडिगाहित्ता पुप्फ पुष्पं आसाइत्ता कसायं कसायं परिट्ठवेइ, माइट्ठाणं संफासे, णो एवं करिज्जा. पुप्फ पुप्फेति या, कसायं कसायेत्ति वा सव्वमेयं भुजिजा, णो किंचिविपरिवेज्जा ॥सू० ९९॥ छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा गृहपतिकुलं यायत् प्रविष्टः सन् अन्यतरत् पानकजातम् अनुप्रविष्ट होकर 'अण्णयरं भोयणजायं अन्यतर-अशनादि जो कुछ भी भोजन जात को 'पडिगाहित्ता' लेकर उममें यदि 'सुभि सुम्भि' भोच्चा' सुगन्ध युक्त अशनादि को खाकर 'दुभि दुभि परिहवेइ,' दुर्गन्ध युक्त अशनादि को कहीं पर फेक दे तो उस साधु को 'माइट्ठाणं संफासे' छलकपटादि रूप मातृस्थान दोष लगेगा, इसलिये 'णो एवं करिजा' ऐसा नहीं करना चाहिये अर्थात् भिक्षा के रूप में जो अशनादि भोजन लावे उस में अच्छी अच्छी वस्तु को खाले और खराय खराव को फेक देतो छलकपटादि रूप मातृस्थान दोष होता है अतः ऐसा नहीं करे अपितु 'सुभि वा दुभि वा सव्वं भुंजे, न किंचि वि परिहविजा' सुरभि या असुरभि जो भी कुछ मिले उस सभी को खालेना चाहिये उस में कुछ भी नहीं फेंकना चाहिये, क्योंकि उक्तरीति से फेंकने पर मातृस्थान दोष से संयम आत्मविराधना होगी ॥९८॥ सुब्भि भोच्चा' सुगामा सुधाण तथा सा२। सापा ५ मा २ भणे ते १४२ 'दुन्भिं दुन्भिं परिद्ववेई' हुस-या माडारने त्या॥ ७२ ता तथा साधु सापान 'माइट्ठाणं संफासे' ७१४५८३५ मातृस्थान होप लागे छ. तेथी 'णो एवं करेजा थे प्रमाणे ४२७ नही. ५२तु सुभि वा दुभि या' स॥३, परामरे प्राप्त थाय ते 'सव्व मुंजे' सधनु ઉપયોગમાં લેવું જોઈએ, તેમાંથી કેઈપણ દ્રવ્યને ત્યાગ કરે ન જોઈએ. કેમ કે તેવી રીતે ત્યાગ કરવાથી માતૃસ્થાન દેષથી સંયમ આત્મ વિરાધના થાય છે. છે સુ. ૯૮ છે श्री. आया। सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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