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________________ २३२ ___आचारांगसूत्रे टेम्बरुकनामकवृक्षविशेषफलम्, 'विलुयं वा' बिल्व वा बिल्व वृक्षफलम् 'पलगं वा' पलकं वा पलकनामवृक्षविशेषफलम् 'कासवणालियं वा श्रीपर्णीफलं वा कुम्भीपक्वशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् तिन्दुकफलादिकं गर्तादौ निक्षिप्य धूमादिना परिपक्वी कृतमित्यर्थः 'अण्णयरं वा तहप्पगारं' अन्यतरद् वा-अन्यद् वा किमपि तथाप्रकारम् आस्तिकफलादिसदृशं फलसामान्यम् 'आमगं" आमकम्-अर्धपरिपक्वरूपम् अशस्त्रपरिणतम् अशस्त्रोपहतम् 'अप्फासुयं' अप्रासुकं सचित्तं 'जाव' यावद्-अनेषणीयं आधाकर्मादिदोषदुष्टं मन्यमानो ज्ञात्वा लाभे सति ‘णो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयात्, तथाविधास्तिकवृक्षफलादीनां धूमादिना अप्राप्तपाककालमेव परिपक्वीकृतत्वेन अर्धपरिपक्वतया अप्रासुकत्वात् अनेषणीयत्वाच्च तद्ग्रहणे संयमात्मविराधनापत्या साधुभिः साध्वीभिश्च तद् न ग्राह्यम् ॥ सू० ९१ ।। ____ मूलम्-से भिकरवू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव पविटे समाणे से जं पुण एवं जाणिज्जा, कणं वा, कणकुंडगं वा, कणपूयलियं वा, चाउलं वा चाउलपिटुं वा, लिलं वा, तिलपिटुं वा, तिलपप्पडगं वा, अण्णयरं बिल्व-बिल्व वृक्ष का फल या 'पलगं वा' पलक पालक नामका वृक्ष का फल विशेष इसी प्रकार 'कासवणालियं वा श्रीपर्णी का फल अर्थात् तिन्दुक फल वगैरह को जमीन के अन्दर खड्ढे में डाल कर छोटा घडा में छेद करके अग्नि धूम के द्वारा पकाया जाता है ऐसे फलों को और 'अण्णयरं वा तहप्पगारं' दूसरे भी इसी तरह के किसी अन्य फल को भी जोकि आस्तिक वगैरह फलों के सदृश हो उन सब को भी 'आमगं' आम-अपरिपक्व कच्चा और 'असत्थपरिणयं अशस्त्रपरिणत चीरफाड से रहित देख कर 'अप्फासुयं जाव' अप्रासुक-सचित्त और यावत् अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से युक्त होने के कारण 'लाभे सते' लाभ होने पर भी साधु और साध्वी 'णो पडिगाहिजा' उस अपरिपक्व और अशस्त्रोपहत आस्तिक वगैरह फल को नहीं ग्रहण करे क्योंकि उक्तरीति से सचित्त और आधाकर्मादि दोष दूषित होने के कारण उसको लेने पर साधु और साध्वी को संयम-आत्म विराधना होगी, अतः उसे नहीं ले ॥ ९१ ॥ मा 'बिलुय वा' (eीन ३५ अथवा 'पालगं वा' ५४ नामना वृक्षन। ३॥ अथवा 'कासवणालिय' वा' आसपास क्ष विशेषना जो 2424। 'अण्णयर वा तहप्पगार” भीत तेना रवा मी जोन ३२ मस्त विगेरे वा हाय ते मा. 'आमगं' २५५४५ डाय तथा 'असत्थपरिणयं' शत्रपरिणत थये नहाय तो तवा जो 'अफासुर्य जाव' मासु पाथी न्याय-24NEL पाएन 'लाभे संते' भने । ५५ 'णो पडिगाहिज्जा' ते अg] ४२वा नाही. भ है मेरीतना सथित तथा मायामा દેષવાળા હોવાથી તે લેવાથી સાધુ અને સાધ્વીને સંયમ આત્મ વિરાધના થાય છે તેથી તેને ન લેવા ! સૂ. ૯૧ છે श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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