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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. ७ सू० ८३ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् २१७ स्थिफलं कोमलफलजातम् 'आमगं' आमकम् अपरिपक्वरूपम् 'असत्थपरिणयं' अशस्त्रपरिणतम् न शास्त्रेण परिणती कृतम् अशखोपहतमित्यर्थः 'अप्फासुयं' अपासुकम् सचित्तम् 'अणेसणिज्ज' अनेपणीयम्-आधाकर्मादिदोषदुष्टम् 'जाव' यावत्-मन्यमानो ज्ञात्वा 'लाभे संते' लामे सति 'णो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृतीयात, अपद्धास्थिफलजातस्य अशस्त्रपरिणत्वेन सचित्तत्वाद आघाकर्मादिदोषयुक्तत्वाच्च साधुभिर्न ग्राह्यम् ॥ ० ८३ ॥ । मूलम्-से भिक्खू वा भिकाणी चा गाहावइ कुलं जाव पविटे समाणे से जं पुण एवं मंथुजायं जाणिजा, तं जहा-उंबरमंथु वा, णग्गोहमन्थु वा पिलुक्खुमधु वा, आसोत्थम) वा अण्णयरं वा तहप्पगारं मंथुजायं आमगं दुरक्कं साणुवीयं अप्कासुयं जाव णो पडिगाहिज्जा ।८४॥ छाया-स भिक्षरी भिक्षुकी वा गृहपति कुलं यावत् प्रविष्टः सन् स यदि पुनरेवं मन्यु जातम् जानीयात् तद्यथा-उदुम्बर मन्थुम् वा, न्यग्रोधमाथुम् वा प्लक्षमन्थुम् वा, अश्वत्थमत्थुम् या अन्यतरद् वा तथाप्रकारम् मन्थुजातम् आमकम् दुष्पिष्टम् सानुवीजम् अप्रासुकम् यावद् नो प्रतिगृह्णीयात् ।।८४॥ टीका-अथ उदुम्बरादिफलचूर्णमधिकृत्य तन्निषेधं वक्तुमाह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' पूर्वोक्तो भाव भिक्षुर्वा भावभिक्षुकी वा 'गाहावद कुलं' गृहपतिकुलम् 'जाव पवितु समाणे' आम वगैरह का कोमल फल जात यदि 'आमगं असत्थपरिणयं' आम-अपरिपक्व कच्चा है और अशस्त्रपरिणत आप्र वगैरह के कोमल फल जात को 'अप्फासुयं अणेसणिज्ज जाव' अप्रासुक सचित्त एवं अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से दक्षित यावत्-समझ कर मिलने पर भी भाव साधु और भाव साध्वी उसको 'जी पडिगाहिजा नहीं ग्रहण करे क्योंकि उस कोमल आम वगैरह के फल सामान्य को कच्चे और अशस्त्रपरिणत होने से सचित्त और आधाकर्मादि दोषों से युक्त होने के कारण संयम और आत्मा का विराधक होने से साधु और साध्वी संयम पालनार्थ उस प्रकार के कच्चे और चीर फार से रहित कोमल फल जात को नहीं ले, अन्यथा उस को लेने पर संयम आत्म विराधना होगी ॥८३॥ टीकार्थ-अव उदम्बर-गूलर वगैरह का फल चूर्ण को लक्ष्यकर उसका निषेध ५४५ डाय 'असत्थपरिणय' शस्त्र परिणत येत नसय मात् यो३० , न बोय तो तेव। मामा विगेरेना भा जाने 'अप्फासुयं' सयित्त से अनेषणीय साधा दि होपोथी दूषित यावत् समलने 'णो पडिगाहिज्जा' त थाय त ५ ते देवा નહીં કેમ કે–એ કુમળા કેરી વિગેરે સામાન્ય ફળ કાચા અને અશસ્ત્ર પરિણત હોવાથી સચિત્ત અને આધાકર્માદિ દેથી યુકત હોવાને લીધે સંયમ અને આત્માના વિરાધક હોવાથી સાધુ સાધ્વીએ સંયમ પાલન માટે એવા પ્રકારના કાચા કે ચીર્યા ફેડયા વગરના ३ से नही ४।२१ ते पाथी सयम मामानी विराना थाय छ. ॥सू. ८३ ॥ आ० २८ श्री आया। सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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