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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ७ सू० ७२ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् १९३ छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा गृहपतिकुलं पानकप्रतिज्ञया प्रविष्टः सन् स यदि पुनरेवं पानकजातं जानीयात्-तद्यथा-उत्स्वेदितं वा संस्वेदितं वा तण्डुलोदकं वा अन्यतरद् वा तथाप्रकारं पानकजातम् अधुना धौतम् अनम्लम् अव्युत्क्रान्तम् अपरिणतम् अविध्यस्तम् अप्रासुकम् अनेषणीयम् मन्यमानः नो प्रतिगृह्णीयात् ॥ सू०७२॥ टीका-सम्प्रति पानकदोषमधिकृत्य वक्तुमाह-'से भिक्खू वा भिवखुणी वा' स पूर्वोक्तो भिक्षु भिक्षुकी वा 'गाहावइकुलं' गृहपतिकुलम् 'पाणगपडियाए' पानकप्रतिज्ञया पानीय भिक्षाग्रहणाथै 'पविढे समाणे प्रविष्टः सन ‘से जं पुण एवं पाणगजायं' स भिक्षुः यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या पानकजातम्-पानीय जातीयम् उदयप्रभेदम् 'जाणिज्जा' जानीयान्'तं जहा-उस्सेइमं वा संसेइमं वा' तद्यथा-उत्स्वेदितं वा-पिष्टस्योत्स्वेदनार्थमुदकं वर्नते, एवं संस्वेदितं वा-तिलानां धावनोदकं वर्तते, अरणिकादि शाकसंस्विनधावनोदकं वाऽस्ति 'चाउलोदगं वा' तण्डुलोदकं वा-तण्डुलानां प्रक्षालनोदकं वर्तते 'अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजाय अन्यतरद् वा उत्स्वेदितादितोऽन्यद वा किमपि तथाप्रकारम् तथाविधम् धावनोद कादिरूपं पानकजातम् उदकप्रभेदम् 'अहुणाधोयं' अधुना धौतम्-तात्कालिकधावनोदकम् 'अणंबिलं' अनम्लम् न अम्लीभूतम् अपरिवर्तितस्त्रादम् 'अव्वुकतं' अव्युत्क्रान्तम् टीकार्थ-अब पानक दोष को लक्ष्य कर बतलाते हैं 'से भिक्खू वा भिक्खुणी गाहावइ कुलं पाणगपडियाए पविढे समाणे' स-वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी-साध्वी गृहपति गृहस्थ श्रावक के घरमें पानककी प्रतिज्ञा से पानी की भिक्षा लेने की इच्छा से प्रविष्ट होकर 'से जं पुण एवं पाणगजायं जाणेज्जा' स-यह संयमशील साधु और साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाणरीति से पानक जात-पानी को जान लेकि 'तं जहा-उस्सेइमं वा, संसेइमं वा' तद् यथा जैसे कि वह पानक विशेष पिष्ट लोट आटा वगैरह को कुछ सिझाने के लिये यह पानी है एवं संस्वेदित-तिल को प्रक्षालित करने का यह पानी है 'चाउलोदकं वो' तण्डलोदक चावल को धोने का यह पानी है 'अण्णयरं या तहप्पगारं पाणगजाय' तथा उत्स्वेदित तगैरह से भिन्न किसी दूसरे तरह का ही प्रक्षालन करने का पानी है और 'अहुणाधोयं' तात्कालिक ही प्रक्षालनोदक है एवं 'अणंबिलं, वह હવે યિદ્રવ્યને ઉદ્દેશીને સૂત્રકાર કહે છે. - टीआय-से भिक्खु वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वरित सयमशील साधु मन सापा 'गाहावइकुलं' स्थापना घ२i 'पाणगपडियाए पविट्रे समाणे' पानी प्रास्ता तथा प्रवेशीन ‘से जं पुण एवं पाणगजायं जाणिज्जा' ताने माण अपामा मापना२ रीत gran, तं जहा' उस्सेइम वा सोटवा पाणी ३२४ाथ २॥२ ४थट छाये हाय अथवा 'संसेइमं वा' त घायद पापी हाय 'चाउलोदगं वा' मया योमा घायल पाणी हाय 'अण्णयरं वा तहप्पगार पाणगजायं' अथवा तनाथी । प्रारे 30 मी वस्तु धोयेस पाणी डाय अथवा 'अहुणाधाय' त परतु धोयेस पाणी य तथा आ० २५ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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