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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ६ सू० ५८ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् १४९ पुनः पुनरवलम्बनं कृत्वा 'चिटिना' तिष्ठेत, द्वारभागस्य जोर्णत्वेन पप्तनं स्यात, दुष्प्रतिष्ठित - स्वाद वा चलनं भवेत् तथा च तत्प्रयुक्तसंयमात्मविराधना स्यात् 'णो गाहावइकुलस्स दग च्छड्डणमत्तए चिट्ठिज्जा' नो वा गृहपतिकुलस्य-गृहस्थगृहस्य उदकप्रतिष्ठापनमात्रके-पात्रादि उपकरणप्रक्षालन जलप्रक्षेपस्थाने तिष्ठेत, तथा सति तत्प्रवचनजुगुप्सा संभवात्, एवम् ‘णो गाहावइकुलस्स चंदणिउयए चिहिज्जा' नो वा गृहपतिकुलस्य आचमनोद के- आचमनजल. प्रवाहस्थले तिष्ठेत्, तत्रापि साधोरवस्थाने तत्प्रवचनजुगुप्सा स्यात्, तथा 'णो गाहावइकुरस्स सिणाणस्स वा बच्चस्स वा संलोए सपडिदुवारे चिट्ठिज्जा' नो वा गृहपतिलस्य उस द्वार भाग को बहुत जोर्ण शीर्ण पुराणे होने से गिरजाने की संभावना रहती है अथवा अच्छी तरह से नहीं संस्थापित रचित किये जाने से द्वार भाग चलाय मान हो सकता है इसलिये तत्प्रयुक्त संयमी आत्मा की विराधना होगी, एवं 'णो गाहावइकुलस्स दगच्छड्डणमत्तए चिहिज्जा' गृहपति गृहस्थ आवक के घरका पात्रादिका प्रक्षालन जलके प्रक्षेप स्थान में भी नहीं खडा होकर रहे क्योंकि ऐसे बर्तन धोने के एंठवाड के स्थान में खडे रहने से उन साघु साध्वी के प्रति आवकों को घृणा दृष्टि होगी और उन के धर्मोपदेश रूप प्रवचन के प्रति जुगु प्सा होने से उनका अनादर होगा इसलिये साघु को ऐसे स्थान में खड़ा नहीं रहना चाहिये इसी प्रकार ‘णो गाहावश्कुलस्स चिंहिउयए चिहिज्जा, 'नो गृहपतिकुलस्य आचमनोदके तिष्टेतू, गृहपति-गृहस्थ श्रावक के घर के आचमनोदकमुख धोने के जलप्रवाह स्थान में भी साधु को खडा नहीं होना चाहिये क्योंकि ऐसे भी मुख प्रक्षालन स्थान में खडे रहने से साधु के धर्मोपदेश रूप प्रवचन के प्रति श्रावक को जुगुप्सा होगी, इसलिये ऐसे भी स्थान में साधु को खडा नहीं रहना चाहिये एवं णो गाहावह कुलस्ल सिणाणस्स वा वच्चस्स संलोए संपडिदुवारे चिहिज्जा' द्वारके एवं गृहपति-गृहस्थ श्रावक के स्नानागार के હોવાથી કારભાગ હલી જવાને સંભવ રહે છે અથવા સારી રીતે સંસ્થાપિત કરેલ ન હોય તો પણ દ્વાર ભાગહલી જવાને સંભવ રહે છે. તેથી એ રીતે સંયમી આત્માની વિરાધના थाय छे. तथा 'णो गाहावइकुलास' गृहपतिना घना 'दगच्छडणमत्तए चिद्विज्जा' पासपने ધઈને પાણી નાખવાના રથાનમાં પણ ઉભું રહેવું નહીં કેમ કે-એ રીત વાસણ જોઈને એંઠવાડવાળા સ્થાનમાં ઉભા રહેવાથી તેમના પ્રત્યે શ્રાવકને ઘણદષ્ટિ થશે તથા તેમના ધર્મોપદેશ રૂપ પ્રવચન પ્રત્યે નામરજી થવાથી તેમને અનાદર થશે તેથી સાધુએ એવા स्थानमा मान २३ मे प्रमाणे 'णो गाहाव इकुलस्स चिंदणिउयए चिट्रिज्जा' 0. સ્થ શ્રાવકના મુખ ધવાના જલ પ્રવાહ (ચેકડી) સ્થાનમાં પણ ઉભા ન રહેવું તથા 'गाहावइकुलस्स' रुपतिना घनां 'सिणाणस्स वच्चस्स संलोए' स्नान घरनी सामे तथा M३. 'सपडिदुवारे चिट्टिज्जा' ४२५11 साभे ५५] साधुसे भुन भ सेवा श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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