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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतत्कंघ २ उ. ५ सू० ५५ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् पविठुकामे समाणे' गृहपतिकुलं यावत्-पिण्डपातप्रतिज्ञया-भिक्षार्थ प्रवेष्टुकामः सन्-प्रवि. विक्षुः सन् 'सेनं पुण जाणिज्जा' स साधुः यत् पुनः एवं रीत्या जानीयात्-'समर्ण वा, माहणं वा गामपिंडोल वा श्रमणं वा-शाक्यादिभिक्षुकम्, ब्राह्मणं वा, ग्रामपिण्डोलकं वाग्रामयाचकं वा 'अतिहिं वा' अतिथि वा 'पुव्वपक्टुिं पेढाए' पूर्वप्रविष्ट गृहपतिकुले पूर्वकालादेव प्रविष्टम्, प्रेक्ष्य दृष्ट्वा ‘णो ते उवाइककम्म पविसेज्ज वा ओभासेज्ज वा' नो तान् पूर्वप्रविष्टान् शाक्यादीन् उपातिक्रम्य उल्लङ्ध्य प्रविशेद वा अवभाषेत वा एतावता साधुः गृहपतिकुले पूर्वप्रविष्टं शाक्यश्रमणादिकं दृष्ट्वा न तान् अतिक्रम्य तत्र प्रविशेत्, नवा तत्रस्थित एय दातारं याचितु मवभाषेत. अपितु 'से तमायाय एगन्तमवक्कमिज्जा' स साधुः तम्-पूर्वप्रविष्टम् शाक्यादिश्रमणम् आदाय-अवगम्य तत्स्थानात् एकान्तमपक्रामेत् निर्गच्छेत् । 'एगंतमवक्कमित्ता अणावायमसंलोए चिट्ठिज्जा' एकान्तमपक्रम्प अनापातासंलोके-यातायात टीकार्थ-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु-भाव साधु और भिक्षुकी-भावसाध्वी 'गाहावइकुलं' गृहनि-गृहस्थ श्रावक के घरमें 'जाव' यावन्-पिण्डपात की प्रतिज्ञा से-भिक्षा लाभ की आशा से 'पविठुकामे समाणे' प्रवेश करने का इच्छुक से जंपुण एवं जाणिज्जा वह यदि ऐसा वक्ष्यमाणरिति से जान लेकि 'समणं वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा' श्रमण-चरक शाक्य वगैरह भिक्षुक को-गृहपति के घर में पहले भिक्षा के लिये प्रविष्ट-आये हुए देखकर एवं ब्राह्मण और ग्राम भिक्षक तथा 'अतिहिं वा पुव्वपक्टुिं पेहाए' अतिथि को पूर्व प्रविष्ट देखकर जान ले तो 'णो ते उवाइकम्म पविसेज वा ओभा सेज वा' उन पूर्व प्रविष्ट चरक शाक्य श्रमणादि को उल्लंघनकर गृहपति के घर में भिक्षा के लिये भाव साधु नहीं प्रवेश करे और वहां रह कर उस गृहपति से भिक्षा के लिये चोले भी नहीं अपितु से तमायाय' वह भाव साधु और भाव साध्वी उस चरक शाक्यादि श्रमण को वहां पर पूर्व प्रविष्ट जान कर या देख कर उस स्थान से निकलकर 'एगंतमवक्कमेजा' एकान्त मे चला जाय और 'एकान्तम्' अप राय-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वोत साधु मा२ सामी 'गाहावइ फुलं जाव समणे' गडपात प्रस्थ श्राना घरमां यावत् 'पविठुकामे समाणे मिक्षा मालनी ४२४ाथी प्रवेश ४२वानी ५२७। २ता से जं पुण जाणिज्जा' तमना लवामा मेवी रीत भावे, 'समणं वा माहणं वा गामरिंडोलगं वा' श्रभर य२४॥४५ विगेरे साधुन ३ श्राया मया श्राममिक्षु तथा 'अतिहिं वा' मतिथिने 'पुवपविद्रं पेहाए' गृहपातना घरमा परथी । लिक्षा ग्रहण भाट मानन अथवा ती 'णो ने उवाइकम्म पविसेज्ज वा ओभासेज्ज वा' से पडेथी मासा २२४।७५ श्रमान जी - પતિના ઘરમાં ભિક્ષા ગ્રહણ માટે ભાવ સાધુ કે સાધ્વીએ પ્રવેશ ન કરે. અને ત્યાં रहीन से पतिन मिक्षा भोट हेयुपए नही. 'से तमायाय एगंतमवकमज्जा' तेला સાધુએ કે ભાવ સાવીએ એ ચરકશાજ્યાદિ શ્રમણોને ત્યાં પહેલેથી આવેલા જોઈને કે श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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