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________________ ११८० आचारागसूत्रे मूलम्-से हु परिन्नासमयंमि वट्टई, निराससे उवरयमेहुणा चरे। भूयंगमे जुन्नतयं जहा चए, विमुच्चई से दुहसिजमाहणे ॥९॥ छाय-स हि परिज्ञासमये वर्तते, निराशंसः उपरतः मैथुनात् चरेत् । भुजंगमः जीर्णत्वचं यथा त्यजेत् विमुच्यते स दुःखशय्यातो माहनः ॥९॥ टोका-'सम्प्रति भुजङ्गत्वगधिकारमुद्दिश्य प्ररूपयितुमाह-'से हु परिन्नासमयंमि वट्टई' स हि-स खलु भावसाधुः परिज्ञासमये मूलोत्तरगुणधारी पिण्डैषणाध्ययनार्थ ज्ञानकरणो युक्तः सन् वर्तते-प्रवर्तते इत्यर्थः, एवम् 'निराससे उवश्यमेहुणाचरे' निराशंस:-ऐहलौकिकपारलौकिकाशंसारहितः, मैथुनाद्-विषयभोगाद् उपरतः-विरतः, हिंसाविरत्यादि पंचमहाव्रतधारी चैवंभूतो भिक्षुः चरेत्-संयममार्गे विचरेदित्यर्थः तथा च 'भुयंगमे जुन्नतयं जहा चए' यथा भुजङ्गमः सर्पः जीपत्वचम्-कञ्चुकर त्यजति मुक्त्वा निर्मलो भवति तथा 'विमुच्चई से दुहसिजमाहणे' विमुच्यते-विमुक्तो भवति संसारबन्धनरहितो भवति स माहन:-अहिंसाधुपधिकार की वक्तव्यता सम्पन्न हो गयी ॥८॥ __ अब भुजङ्गत्वगधिकार को उद्देश्यकर बतलाते हैं-'से हु परिन्ना समयंमि कट्टई' जिस प्रकार वह पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ जैन भावसाधु परिज्ञा समय में मूलोत्तर गुणों को धारण करनेवाला पिण्डेषणा का अध्ययन करने के लिये ज्ञान करण से युक्त होकर प्रवृत्त होता है इसी प्रकार 'निराससे उवरयमेहुणाचरे' ऐहलौकिक तबा पारलौकिक आशंसामों से रहित होकर और विषय भोग रूप मैथुन से भी विरत होकर और हिंसा विरति वगैरह पांच महाव्रत धारी होकर भिक्षु जैन साधु निर्गन्ध संयम मार्ग में विचरे याने विहार करें इसी बात को दृष्टान्त द्वारा समर्थन करते हैं-'भूयंगमे जुन्नतयं जहाचए' जिस प्रकार भुजगम सर्प जीर्णत्वचा को याने पुराने कञ्चुक-काचवां को छोड़कर निर्मल हो जाता है इसी प्रकार 'विमु. च्च से दुहसिज माहणे' वह माहन याने अहिंसादि का उपदेष्टा वह निर्ग्रन्थ जैन साधु संसार बन्धन से रहित होने से निर्मल होकर नरकादि भव से मुक्त રૂપ્યાધિકારનું કથન સમાપ્ત થયું. ૫૮ वे सु धारने उदेशन ४थन ४२वाभा याव छ-'सो हु परिन्नासमयंमि वई' જે પ્રમાણે એ પૂર્વોક્ત નિન્ય મુનિ પરિજ્ઞા સમયમાં મૂક્ષેત્તર ગુણોને ધારણ કરવાવાળા પિડેષણાનું અધ્યયન કરવા માટે જ્ઞાન કરણથી યુક્ત થઈને પ્રવૃત્ત થાય છે. એ જ પ્રમાણે 'निराससे उवरयमेहुणा चरे' मा भने पारसी भाश सामाथी सहित धन અને વિષય ભેગરૂપ મૈથુનથી પણ વિરત થઈને અને હિંસા વિરતિ વિગેરે પાંચ મહાવ્રત ધારી થઈને નિર્ગસ્થ મુનિએ સંયમ માર્ગમાં વિચરવું, અર્થાત વિહાર કર, આ વાત हटान्त द्वारा समावqा डे 2-'भुयंगमे जुन्नतयं जहा चए' म सुगम-स५ ० ચામડીને અર્થાત્ જુની કાંચળીને છોડીને નિર્મળ થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે એ માહન मर्थात् महिसाना उपहेश सापना२ मे नियभुन 'विमुच्चई से दुहसिज्जमाहणे' श्री मायाग सूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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