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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १० अ. १५ भावनाध्ययनम् ११४९ णाया भवंति' तस्य-पञ्चममहाव्रतस्य सर्वपरिग्रहपरित्यागरूपस्य इमाः-वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्चभावना भवन्ति, 'तथिमा पढमा भावणा' तत्र-पञ्चभावनासु इयम्-वक्ष्यमाणस्वरूपा प्रथमा भावना अवगन्तव्या तथाहि 'सोयओ णं जीवे मणुणामणुनाई सदाई' श्रोत्रतः खलु कर्णतः जीवः प्राणी मनोज्ञामनोज्ञान-प्रियाप्रियान् शब्दान् शणोति-आकर्णयति तस्मात् साधुः 'मणुनामगुन्नेहिं सहे हिं न सजिजा' मनोज्ञामनोज्ञैः शब्दैः-प्रियाप्रियैः शब्दरित्यर्थः न सज्जेत-आसक्तो न भवेदिति भावः 'नो रजिजा नो गिज्झेला' नो रज्येत-नानुरज्येत नानुरक्तो भवेत् प्रियाप्रियशब्दान् श्रोतुं साधुः अनुरागं न कुर्थादिति भावः नो न वा गृध्येत्परिग्रह ग्रहण से आत्मा को पृथक करता हूं इस प्रकार गौतमादि गणधरोंने भगवान् श्रीमहावीर स्वामी के पास उक्त पञ्च महाव्रत का पच्चक्खान लिया। ___अब इस सर्वविध धनधान्यादि परिग्रह प्रत्याख्यान की पांच भावनाओं का निरूपण करते हैं-'तस्सिमाओ पंच मावणाओ भवंति' तस्य उस सर्वपरिग्रह परित्याग रूप पञ्च महावत को वक्ष्यमाण रीति से पांच भावनाएं होती है 'तथिमा पढमा भावणा' उस पश्च भावनाओं में यह वक्ष्यमाण स्वरूपा पहली भावना समझनी चाहिये अर्थात् 'सोयओणं जीवे मणुन्नामणु-नाई सद्दाई सुणेई' कान के द्वारा जीव प्राणी मनोज्ञामनोज्ञ अर्थात् प्रिय अप्रिय शब्दों को सुनने में आवे तो 'मणुनामणुन्नेहिं सद्देहिं न सजिज्जा' निग्रंन्ध जैन साधु मनोज्ञामनोज्ञ शब्दो में याने प्रिय अप्रिय शब्दों में आसक्त नहीं हो याने जैन साधु को प्रिय अप्रिय शब्दों को सुनने के लिये आसक्त नहीं होना चाहिये इसी प्रकार 'नो रजिज्जा' प्रिय अप्रिय शब्दों को सुनने के लिये जैन साधु को अनुरक्त भी नहीं होना चाहिये अर्थात् जैन मुनि महात्मा प्रिय अप्रिय शब्दों को सुनने के लिये आसक्ति विशेष रूप अनुराग भी नहीं करें एवं 'नो गिज्झिज्जा' जैन साधु प्रिय अप्रिय शब्दों के लिये लोभविशेष रूप गर्धा भी नहीं करें तथा 'नो વિતરાગ ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીની પાસે ઉક્ત પાંચમા મહાવ્રતના પચ્ચખાન લીધા. હવે આ સર્વવિધ ધનધાન્યાદિ પરિગ્રહ પ્રત્યાખ્યાનની પાંચ ભાવનાઓનું નિરૂપણ ७२पामा मावे छे-'तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवति' से सपरियड परित्या५ ३५ पाय महानतनी १६५मा शत पांय साना वामां आवे छ.-'तथिमा पढमा भावणा' तेमा पसी भावना पाभा मा छ-'सोयओणं जीवे मणुन्नामणुन्नाई सद्दाई सुणेई' કાનથી બધા જ મને જ્ઞાનજ્ઞ અર્થાત્ પ્રિય અપ્રિય શબ્દોને સાંભળે તે તે “મyouT मणुण्णेहिं सद्देहिं न सज्जिज्जा' CHA-2 साधुसे भनाज्ञामना। शोमा अर्थात प्रियमप्रिय શબ્દોમાં આસક્ત થવું નહીં. એટલે કે મનેામનેઝ પ્રિય અપ્રિય શબ્દ સાંભળવામાં રત य नही. 'नो रज्जिज्जा' मेरा प्रमाणे प्रियमप्रिय शो सभा माटे जैन मुनिये अनु२४१५५ नही 'नो गिज्झेज्जा' तथा नि-य अनिम्मे प्रिय मप्रिय Awa Air श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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