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________________ ११४२ आचारांगसत्रे क्रोडितानि स्मर्ता-स्मरणकर्ता स्यात्- नो स्त्रीणां पूर्वरत्यादिनां स्मरणं कुर्यादिति तच्चा भावणा' तृतीया भावना अवगन्तव्या' सम्प्रति तस्यैव तृतीयमहाव्रतस्य चतुर्थी भावनां प्ररूपयितुमाह-'अहावरा चउत्था भावणा' अथ-तृतीयभावना प्ररूपणानन्तरम् चतुर्थी भावना प्ररूप्यते-नाइमत्तपाणभोयण मोई से निग्गंथे' नातिमात्रपानभोजनभोजा-यो न प्रमाणा. दत्यधिकपानभोजनभोक्ता भवति स निर्ग्रन्थः साधुरुच्यते 'न पणीयरसभोयणभोई से निगथे' न प्रणीतरसभोजनभोक्ता-नो सरसपानभोजनकारकः स निर्ग्रन्थः साधुः एतावता साधुः जैन साधु को युवती स्त्रियों के पूर्व रतों का तथा 'पुरकोलिपाई' पूर्व रतिकेलि क्रीडा का 'सुमरित्तए सिया' स्मरण नहीं करना चाहिये क्योंकि उक्तरीति से स्मरण करने पर ब्रह्मचर्यादि का भंग हो जाने से संयम की विराधना होगी, इसलिये संयमपालन करनेवाले जैन साधु को पूर्वकालिक युवती स्त्री सम्बन्धो रत्यादि का स्मरण नहीं करना चाहिये 'तच्चा भावणा' इस प्रकार तृतीय भावना समझनी चाहिये। ___ अब उसी सर्वविध भैथुनविरमण रूप चतुर्थ महावत की चतुर्थी भावना का निरूपण करते हैं-'अहावरा च उत्था भावणा' अथ सर्वविध मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महावत की तृतीय भावना का निरूपण करने के बाद अब चतुर्थी भावना का निरूपण करते हैं-अपरा अन्या चतुर्थी भावना वक्ष्यमाण रूप से समझनी चाहिये-जो साधु 'नाइमत्तपाणभोयणभोह से निरगंथे' अत्यधिक अर्थात् प्रमाणमात्रा से अधिक पान भोजन नहीं करने वाला होता है वही वास्तव में निर्ग्रन्थ जैन साधु समझा जाता है अर्थात् जो साधु प्रमाण से अत्यधिक पान भोजन भोक्ता नहीं होता वही निर्ग्रन्थ जैन साधु मुनि महात्मा माना जाता है एवं जो साधु 'न पणीयरसभोयगभोइ से निग्गंथे' प्रणीत अर्थात् सियत्ति तच्चा भावणा' नि-य भुनिये युवान् खियो सायना पू तान तथा पूर्व આચરેલ કેલી ક્રીડાનું સ્મરણ કરવું નહીં', કેમકે ઉક્ત પ્રકારથી સ્મરણ કરવાથી બ્રહ્મચર્યાદિને ભંગ થવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે તેથી સંયમનું પાલન કરવાવાળા સાધુએ પૂર્વે કરેલી સ્ત્રી સંબંધી રત્યાદિનું સ્મરણ કરવું નહીં આ રીતે આ ત્રીજી ભાવના સમજવી, - હવે એ સર્વવિધ મિથુન વિરમણ રૂપ ચોથા મહાવ્રતની ચાથી ભાવનાનું નિરૂપણ ४२वामां आवे छे 'अहावरा च उत्था भावणा' सविध भैथुन विरभ५३५ याथा महातनी योथी मानानु नि३५९ ४२वामा माछे-याथी मान 20 प्रमाणे समापी 'नाइमत्त पाणभोयणभोइ से निग्गंथे' २ साधु अत्यधि४ अर्थात् प्रभा भात्राथी पधारे पान सोन કરવા વાળા ન હોય એજ વાસ્તવિક રીતે નિર્ચન્ય મુનિ સમજવા. અર્થાત જે સાધુ પ્રમા थी पधारे ५७ता पान लोगनना लता नथी डाता से निन्थ मुनि छ. 'न पणीयरसभोइ से निगथे' भने २ साधु प्रणीत मर्यात सरस पान मा ४२वाया जाय छ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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