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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू. १० अ. १५ भावनाध्ययनम् निर्ग्रन्थः-साधुः स्त्रीणाम् मनोहराणि मनोहराणि इन्द्रियाणि-मुखनयनस्तनादीनि इन्द्रियाणि आलोकयिता-काममावनया अवलोकनकर्ता, निाता-ध्यानकर्ता स्मरणकर्ता वा स्यात्कामवासनया साधुः स्त्रीसम्बन्धिमुखनयनाद्यवलोकनध्यानस्मरणं न कुर्यादित्यर्थः तत्र हेतुमाह- केवलीबूया भायाणमेयं केवली-केवलज्ञानी भगवान् जिनेन्द्रः ब्रूयात्-कथयति उक्तवान् किमित्याह-'आदानम्-कर्मबन्धकारणम् एतत्-कामवासना स्त्रीसम्बन्धिमुख नयनाद्यङ्गोपाङ्गाचलोकनध्यानस्मरणं कर्मबन्ध हेतुर्भवतीति भावः तथाहि 'निग्गंथेणं इत्थीणं मणोहराई मणो. हराइं इंदियाई' निग्रंन्यः खलु-साधुः स्त्रीणां मनोहराणि मनोहराणि--अत्यन्तमजुलानि इन्द्रियाणि-मुखनयनप्रभृतीनि अङ्गानि 'आलोएमाणे निज्झाएमाणे आलोकयन्-अवलोकयन् पश्यनित्यर्थः निायन्-ध्यानं स्मरणं वा कुर्वन् 'संतिभेया संतिविभंगा' शान्ति भेदक:चारित्रसमाधिभेदकारकः, शान्तिविभञ्जका-ब्रह्मचर्षविभङ्ग कर्ता स्यात् 'जाव धम्माओ भंसिज्जा मणोहराइं इंदियाई' निर्गन्थ जैन साधु को स्त्रियों के अत्यन्त मनोहर रमणीय मुख नयन स्तनादि इन्द्रियों का 'आलोइए' अवलोकन नहीं करना चाहिये अर्थात् कामभावना से युवती स्त्रियों के मुखनयन स्तनादिको नहीं देखना चाहिये एवं निर्ध्यान भी नहीं करना चाहिये एवं कामभावना से 'निज्झाइत्तए सिया' स्त्री के मुखादि का स्मरण भी नहीं करना चाहिये क्योंकि केवलीबूया' केवलज्ञानी भगः वान् श्रीमहावीर स्वामी वगैरह सभी तीर्थंकरोंने कहा है कि-यह अर्थात् काम भावना से युवती स्त्रियों के मुखनयन स्तनादि का अवलोकन करना एवं ध्यान तथा स्मरण करना कर्मयन्ध का कारण माना जाता है क्योंकि 'निग्गंथेणं इत्थीणं मणोहराई मणोहराई इंदियाई' निर्ग्रन्ध जैन साधु युवती स्त्रियों के मुखनपनादि सुन्दर अङ्गों का 'आलोएमाणे निज्झाएमाणे संतिभेया' अवलोकन करता हुआ तथा ध्यान करता हुआ एवं स्मरण करता हुआ चारित्र समाधिका भेद कारक हो सकता है और 'संतिविभंगा जाव धम्माओ भंसिज्जा' ब्रह्मचर्य का भी भंग कारक हो सकता है तथा यावत् शान्तिपूर्वक केवलज्ञानी वीतराग भगवान् મનહર રમણીય મુખ નયન સ્તનાદિ ઈદ્રિનું અવલોકન કરવું નહી, અર્થાત કામ लानाथी युति खियाना भुप नयन मने स्तनादिगो नेवा नही, तथा 'निज्झाइत्तए सिया' नियान ५५ ४२वुनी भने म मानाथी स्निना भुमाहिनु भ२० ५४ ४२ नही भ-केवलीव्या आयाणमेय' विज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामी विगैरे તીર્થકરેએ કહ્યું છે કે–આ અર્થાત કામભાવનાથી યુવતિનિા મુખ નયનાદિઅંગેનું અવકન કરવું તે તથા ધ્યાન અને સ્મરણ કરવું તે કર્મ બંધનું કારણ માનવામાં આવે छ भो 'निग्गंथेणं इत्थीणं मणोहराई मणोहगई इंदियाई' नि-य भुनिये युवती स्त्रीयाना भुम नयनाहि अवयवानु 'अलोएमाणे मान ४२वाथी तथा निज्झाएमाणे' यान ४२वाथी भने स्म२६१ ३२पाथी 'संति भंगा जाव धम्माओ भंसिज्जा' शांति समाधिना मे १२नार બને છે. અને બ્રહ્મચર્યને પણ ભંગ કરનારા બને છે અને યાવત્ શાંતિપૂર્વક કેવળજ્ઞાની श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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