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________________ ममप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू. ९ अ. १५ भावनाप्ययनम् पशम भावोत्पन्नम् चारित्रम्-दीक्षा ग्रहणम् 'पडिवनस्स' प्रतिपन्नस्य प्राप्तस्य महावीरस्वामिन इत्यर्थः 'मणपजवनाणे नामं नाणे' मनःपर्यवज्ञानं नाम-मनः पर्यायाभिधं ज्ञानम् 'समुप्पन' समुत्पन्नम्-संजातम्, मनःपर्यवज्ञानप्रभावेण भगवान् श्री महावीरः 'अड्डाइज्जेहिं दीवहिं' सार्धद्वयेषु द्वोपेषु 'दोहि य समुदेहि' द्वयोश्च समुद्रयोः स्थितानाम् 'सन्नीणं पंचिदियाणं पन्जताणं' संज्ञिनाम्-मनोयुक्तानाम् पञ्चेन्द्रियाणाम् पर्याप्तानाश्च जीवानाम् 'वियत्तमाणसाणं' व्यक्तमानसानाम्-स्पष्ट मानसानाञ्च 'मणोगयाइं भावाई जाणेइ' मनोगतान् भाषान्-अभिप्रायान् जानाति, मनःपर्यवज्ञानेन भगवान् सार्द्धद्वयद्वीपस्थितानां समुद्वयस्थितानाश्च मनोपशम भावोत्पन्न दीक्षा ग्रहणरूप चारित्र को 'पडिवन्नस्स' प्राप्त करनेवाले श्री महावीर स्वामी को 'मणपज्जवनाणे नामं नाणे' मनापर्यवज्ञान अर्थात् मनः पर्याय नाम का ज्ञान 'समुपपन्ने' उत्पन्न हुआ, एतावता समभाव साधनात्मक और क्षयोपशम भाव से उत्पन्न दीक्षा ग्रहण रूप चारित्र को प्राप्त किये हुए भगवान् वीतराग श्री महावीर स्वामी को मनापर्थवज्ञान उत्पन्न हुआ, यह फलित होता है अब मनःपर्यवज्ञान का प्रमाव बतलाते हैं-मन:पर्यवज्ञान के प्रभाव से भगवान् श्री महावीर स्वामी 'अट्टाइज्जाई दीवेहिं' सार्धद्वय दीपो में अर्थात् अढाइ द्वीपों के अंदर में और 'दोहिय समुद्दहि' दो समुद्रो में रहनेवाले 'सन्नीणं पंचिंदियाणं' संज्ञी याने मन से युक्त पञ्चेन्द्रिय और 'पज्जत्ताणं' पर्याप्त जीवों के और 'वियत्तमाणसाणं' व्यक्त मानस अर्थात् स्पष्ट मानस वाले प्राणियों के 'मणोगयाइं भावाई जाणेइ' मनोगत भावों को याने अभिप्रायों को जानने लगे याने मनः पर्यवज्ञान से भगवान् श्री महावीर स्वामी अढाइ द्वीपों में रहने वाले और दो समुद्रों में रहने वाले मनोयुक्त प्राणियों के मनोगत अभिप्राय को जानने में समर्थ हो गये यह फलितार्थ हुआ। प्रात ४२१११ श्रमायु मावान् श्रीमहावीर स्वामीन 'मणपज्जवनाणे नामं नाणे समुप्पन्ने મન:પર્યવાન અર્થાત્ મનઃ પર્યવ નામનું જ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું. એટલે કે સમભાવ સાધનાત્મક અને પશમ ભાવથી થયેલ દીક્ષા ગ્રહણરૂપ ચારિત્રને પ્રાપ્ત થયેલ ભગવાન શ્રીમહાવીરસ્વામીને મન:પર્યવજ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું. वे मनाप ज्ञानना प्रभाव मतावामां आवे छे-'अठ्ठाइज्जेहिं दीहिं' ५२म निभा मन:५यविज्ञानथी मगवान् श्रीमहावीर स्वामी मढी दीवानी ४२ अने दोहि समुदेहि में समुद्रोमा २०वा 'सन्नीणं पंचिंदियाणं' सज्ञा अर्थात् भनी युत ५ येन्द्रिय माने "पज्जत्ताणं' पर्याप्त वोन म 'वियत्तमाणसाणं' यतमानस मात् २५ट मानव प्राणियोन। 'मणोगयाई भावाई जाणेई' भनागत भावान अर्थात् मभिप्रायोन. M ainमेटो મન:પર્યાવજ્ઞાનથી ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામી અઢી દ્વીપમાં રહેવાવાળા અને બે સમુદ્રોમાં રહેનારા મનવાળા પ્રાણિઓના મનમાં રહેલ અભિપ્રાયને જાણવા સમર્થ થઈ ગયા. श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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