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________________ she १००८ आचारांगसूत्रे च्यानं करिष्ये इति जानाति 'चुएमित्ति जाणइ' च्युतः अस्मि इति जानाति चयमाणे न जाणइ' च्यत्रमानो न जानाति तत्र बीजमाह-सुहुमेणं से काले पण्णत्ते' सूक्ष्मः खलु स काल:-प्रज्ञप्तः च्यवनस्य वर्तमानकालः अत्यन्त सूक्ष्मत्वात् न संलक्षितुं योग्यः संभवति ऋजुगत्या च्यवनकाले एकः समयः वक्रगत्या च च्यवने जघन्यतो द्विसमयम् उत्कृष्टतः चतुष्टयसमयम् अतएव अत्यन्त सूक्ष्मत्वात् च्यवनकाको न संलक्ष्यते इति भावः 'तुओणं समणे भगवं महावीरे' ततः खलु-यवनानन्तरम्, श्रमणस्य भगवतो महावीरस्वामिनः ‘हियाणुकंपएणं देवेणं' हितानुकम्पकेन-हितसाधकेन दयालुना च देवेन-शक्रप्रेरितदेवेन्द्रेण 'जीय. मेयं तिकट्ठ' जितमेतदितिकृत्वा- अस्माकं जितः एष आचार इति रीत्या 'जे से वासाणं मतिज्ञान और अवधिज्ञान रूप ज्ञानत्रय से उत्पन्न हुए अत एव च्यवन करूंगा अर्थात 'चइस्लामित्ति जाणइ' देवलोक से च्ववन करूंगा यह भी जानते हैं और 'चुएमित्ति जाणई' में च्युत हूं अर्थात् देवलोक से च्यवन कर चुका हूं यह भी जानते हैं किन्तु चयमाणे न जाणइ' च्यवन कर रहा हूं अर्थात् 'सुहुमेणं से काले पण्णत्ते' वर्तमान काल में च्यवन कर रहा हूं यह नहीं जानते हैं क्योंकि च्यवन का वर्तमान काल अत्यन्त सूक्ष्म (बारीक) होने से जान ने योग्य नहीं होता है अर्थात् ऋजु गति से च्यवन काल में एक समय होता है और वक्रगति (टेढो गति) से च्यवन करने में न्यून से न्यून दो समय और जादे से जादे चार समय होते हैं इसलिये च्यवन काल अत्यन्त सूक्ष्म होने से नहीं जानने योग्य माना जाता है तो णं समणे भगवं महावीरे' इस देवलोक से च्यवन करने के बाद श्रमण भगवान महावीर स्वामी का 'हियाणुकंपए णं देवेण' हितसाधक और दयालु शक देवेन्द्र ने प्रेरित हृदय में समझा कि 'जीयमेयं तिकटु' हम लोगों ने आचार को जीत लिया ऐसा समझते हुवे 'जे से वासाणं तच्चे भतिजन भने विज्ञान३५ त्र ज्ञानयी युत प्या. तेथी । 'चहस्सामिति जाणई' च्यवन री अर्थात् माथी च्यवन ४२१० से ५५] एता उता भने 'चुएमित्ति जाणइ' . २यक्ति थाछु मात् समांथी व्यवन ४२री युस छु. से प ता हुता परत 'चयमाणे न जाण३' यवन ४री २९ छु, मान वर्तमानमा च्यवन शश aana नाम-'सुहुमेणं से काले पण्णत्ते' २५पना व मानणणे४ सूक्ष्म હોવાથી જાણવા યોગ્ય નથી, અર્થાત્ જુગતિથી ચ્યવનકાળમાં એક સમય હોય છે. અને વક્ર ગતિથી થવન કરવામાં ઓછામાં ઓછા બે સમય અને વધારેમાં વધારે ચાર સમય હોય છે. તેથી ચ્યવનકાળ ઘણોજ સૂક્ષમ હોવાથી ન જાણવા યોગ્ય માનવામાં આવેલા छ. 'तओ णं समणे भगवं महावीरे हियाणुकंपएणं देवेणं' ते ४ी २यन ४ा पछी શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીના હિતચિંત અને દયાળું શકપ્રેરિત દેવે હાથમાં વિચાર્યું -जीयमेयं तिकटु' माये माया३४ती बाधा छ तेम समलने जे से वासाणं तच्चे श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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