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________________ आचारांगसूत्रे महावाएण वा रयं समुधुयं पेहाए तिरिच्छसंपाइमा वा तसा पाणा संथडा संनिचयमाणा पेहाए, से एवं गचा णो सव्वं भंडगमायाय गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज्ज वा णिक्खमिज्ज वा बहिया वियारभूमि वा, विहारभूमि वा, पविसिज्ज वा णिक्खमिज्ज वा गामाणुगामं दूइज्जिज्जा वा ॥सू० ३७॥ छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा अथ पुनरेवं जानीयात् तीव्रदेशिका वर्षा वर्षन्ती प्रेक्ष्य तीव्रदेशिका महिकां संनिपतन्तीं प्रेक्ष्य, महावातेन वा रजः समुद्धृतं प्रेक्ष्य तिरश्चीन संनिपततो वा त्रसप्राणिनः संस्कृतान् (संस्तृतान्) संनिपततः प्रेक्ष्य स एवं ज्ञात्वा न सवै भंडकमादाय गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविशेद वा निष्क्रामेद वा बहिः विहारभूमि वा विचारभूमि वा निष्क्रामेद् वा प्रविशेद् वा ग्रामानुग्रामं गच्छेत् ॥ सू० ३७॥ ___टीका-वर्षणादि कालेऽपि साधुः साध्वी वा भिक्षाद्यर्थ न कुत्रापि गच्छेत्, अपितु उपाश्रये एव तिष्ठेदित्याह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अह पुण एवं जाणिज्जा' स पूर्वोक्तो जिनकल्ली स्थविरकल्पी वा भावभिक्षुः साधुः वा, भिक्षुकी साध्वी वा अथ पुनः, एवं वक्ष्यमाणरीत्या यदि जानीयात्-अवगच्छेत् 'तिव्वदेसियं वासं वासेमाणं पेहाए' तीव्रदेशिका बर्षा बहुदेशव्यापिका जलवर्षा वर्षन्ती प्रेक्ष्य दृष्ट्वा एवं 'तिव्वदेसियं महियं संनिययमाणं पेहाए' तीनदेशिकाम् बहुक्षेत्रव्यापिनी महिका कुहकं (कुहरा इति माषा) धूमिकामिति ___ अब जलवर्षण आदि के समय में भाव साधु और भाव साध्वी को भिक्षादि के लिये बाहर कहीं भी नहीं जाय अपितु उपाश्रय में ही रहे यह बतलाते है-वह पूर्वोक्त जिनकल्पिक या स्थविरकल्पिक भाव साधु या भाव साध्वी 'से भिक्खू चा भिक्खुणी वा' अहपुण एवं जाणिज्जा' यदि वक्ष्यमाण रीति से ऐसा जानले कि 'तिव्वदेसियं वासं वासेमाणं पेहाए' बहुत देश में व्यापक रूप से वर्षा हो रही है ऐसा देखकर एवं 'तिव्वदेसियं महियं संनिचयमाणं पेहाए' बहुत अधिकक्षेत्र में व्यापक रूप से कुहरा 'कुहेस' पड रहा है या फैल रहा है ऐसा देखकर तथा 'महावाएणवा रजं समुदधुयं पेहाए'-महावात्या-आंधी से धूलि रूप रजःकणोंको उडते હવે જલવર્ષણ વિગેરે સમયમાં સાધુ સાધ્વીએ ભિક્ષા વિગેરે માટે બહાર કયાંય ન જતાં ઉપાશ્રયમાં જ રહેવાનું કથન કરે છે. -से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित ५४ Aथा स्थवि२४६५४ साधु साली 'अहपुण एवं जाणिज्जा' ले १क्ष्य भाथन प्रभारी से तमा न , तिव्वदेसियं वास वासेमाण पेहाए' ५॥ प्रदेशमा व्या५४ ३थे १२सा १२सी २हेस छ. मेन 'तिव्वदेसियं महियं संनिचयमाणं पेहाए' ५॥ पधारे क्षेत्रमा व्या५५ रीत धुम्मस ५१ २४ छे. मया ॥ २३८ छे थे प्रमाणे धन तथा 'महावारण वा श्री आया। सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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