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विषय
उस मुनि को चाहिये कि आहार को क्रमिक अल्प करे, आहार को अल्प कर के और कषायों को कृश कर के अपनी आत्मा को समाहित करते हुए, और संसारजनित फर्म के क्षपण करने की भावना रखते हुए इङ्गित मरण करे। ४७६-४७९ पञ्चम सूत्र का अवतरण, पश्चम मूत्र और छाया ।
४८० ग्रामादि किसी स्थानमें जाकर साधु तृण की याचना करे, तृण लेकर एकान्त स्थानमें जायें । वहाँ कल्पनीय भूमि की प्रतिलेखना प्रमार्जना कर के वहां पर तृण का संथारा करें और फिर इङ्गित मरण से शरीर त्याग करे। ऐसा मुनि सत्यवादी, रागद्वेषरहित, तीर्ण, दृढ, जीवाजीवादिपदार्थज्ञ
और अपारसंसार का पारगामी होता है। बह मुनि इस इङ्गितमरण को सत्य समझकर अनेकविध परीषहोपसर्गों को सह कर, इस जिनशासनमें विश्वस्त हो कातर जनों के असाध्य साधुओं के आचार का आचरण करता है। व्याधिनिमित्त इङ्गित मरण करने वाले साधु का वह मरण पण्डित मरण ही है, यावत् वह आनुगामिक है । उद्देश समाप्ति । ४८१-४८७
॥ इति षष्ठ उश संपूर्ण ॥
॥ अथ सप्तम उद्देश॥ १ सप्तम उद्देशका षष्ठ उद्देशके साथ सम्बन्धप्रतिपादन,
प्रथम सूत्रको अवतरण, प्रथम मूत्र और छाया ४८८-४८९ जो प्रतिमाधारी साधु वस्त्ररहित हो कर संयममें तत्पर रहता है उस मुनिके चित्तमें यह भावना होती है कि मैं तृणस्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श और दंशमशकस्पर्श सह सकता हूं, और भी विविध स्पर्शों को सह सकता हूं; परन्तु लज्जाको नहीं छोड सकता हूं। ऐसे साधुको कटिबन्धन धारण करना कल्पता है।
४८९-४९१
श्री. मायाग सूत्र : 3