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पृष्ठा ७ अवसन्न पार्श्वस्थादिक स्वमतावलम्बियोंद्वारा और शाक्यादि
परमतावलम्बियोंद्वारा आहारादि निमित्त आमन्त्रित होनेपर
साधु, कभी भी उनके आमन्त्रणका स्वीकार न करे। ३७२-३७३ ८ तृतीय सूत्रका अवतरण, तृतीय सूत्र और छाया।
३७४ ९ कितनेक लोगोंको आचारगोचर अर्थात् सर्वज्ञोपदिष्ट संयम
मार्गका परिचय नहीं होता है, अतः वे आरम्भार्थी होते हैं, और उन आरम्भार्थी लोगोंकी तत्वके सम्बन्धमें परस्पर भिन्न भिन्न दृष्टि होती है। इस लिये उनका धर्म वास्तविक नहीं होनेके कारण भव्योंके लिये सर्वदा परित्याज्य है।
३७४-३९६ चतुर्थ सूत्रका अवतरण, चतुर्थ सूत्र और छाया। ३९६-३९७ इस अनेकान्त धर्मका प्ररूपण भगवान् तीर्थकरने किया है। उन्होंने अपने साधुओंके लिये कहा है कि परवादियोंके साथ वादमें भाषासमितिका ध्यान सतत रखें। वे परवादियोसे इस प्रकार कहें कि आपके शास्त्रोंमें षड्जीवनिकयोपमर्दनरूप आरम्भ, धर्मरूपमें स्वीकृत किया गया है वह हमें ग्राह्य नहीं है। क्यों कि आरम्भ नरकनिगोदादिके कारण होने से पाप है । हम सावद्याचरणके त्यागी हैं, अतः हमें इस विषयमें आपके साथ वाद नहीं करना है और यही हमारे लिये उचित भी है। 'धर्म न ग्राममें है और न अरण्यमें, धर्म तो जीवाजीवादि-तत्त्व-परिज्ञानपूर्वक निरवद्यानुष्ठानमें ही है'-यह माहन-भगवान् महावीरका उपदेश है। भगवान्ने तीन यामोंका प्ररूपण किया है। इन यामोंमें संयुध्यमान और समुत्थित आर्यजन जो कि पापकर्मोंसे निवृत्त हैं वे ही अनिदान कहे गये हैं।
३९७-४०३ १२ पञ्चम सूत्रका अवतरण, पश्चम सूत्र और छाया ।
श्री. मायाग सूत्र : 3