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[५१] विषय १२ असंयमसे निवृत्त, उत्तरोत्तर बढते हुए शुभाध्यवसायमें प्रवृत्त
और बहुत कालसे संयममें स्थित ऐसे मुनिको क्या संयममें अरति हो सकती है ।
३०८-३०९ १३ सप्तम मूत्रका अवतरण, सप्तम मूत्र और छाया ।
पूर्वोक्त प्रकारके साधु, उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रशस्त परिणामधारा अथवा गुणस्थानपर आरूढ होते हैं, अतः उनको अरति हो ही कैसे ? । जैसे द्वीप, असन्दीन-बाढके उपद्रवसे रहित होता है, उसी प्रकार यह मुनि भी, उपसर्ग आदिसे बाधित नहीं होता है, अथवा-जैसे असन्दीन द्वीप यात्रिकों के लिये आश्वसनीय होता है, उसी प्रकार संसारसागरको तिरनेकी इच्छावाले मनुष्य, इस प्रकारके साधुओंके ऊपर
विश्वास करते हैं। १५ आठवें सूत्र और छाया। १६ असन्दीन द्वीपके समान भगवद्भाषित धर्म भी है। १७ नवम सूत्रका अवतरण, नवम सूत्र और छाया।
३११-३१२ वह मुनि, निस्पृही अहिंसक सर्वलोकप्रिय साधुमर्यादामें व्य
वस्थित और पण्डित होता है। १९ दशम सूत्रका अवतरण, दशम सूत्र और छाया। ३१२-३१३
आचार्य महाराजको चाहिये कि जैसे पक्षी अपने बच्चोंको उडना सिखाते हैं उसी प्रकार वे भी धर्मानुष्ठानमें अनुत्साही शिष्योंको दिन-रात क्रमशः एकादश अगोंकी शिक्षा दें। आचार्यद्वारा शिक्षित वे शिष्य, सकल परिषहों के सहन और संसारसागरके पार करनेमें समर्थ हो जाते हैं। ३१३-३१४
॥ इति तृतीय उद्देश ॥
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श्री. मायाग सूत्र : 3