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[४९] विषय
पृष्ठाङ्क ६ ममत्व भावनासे रहित, अत एव 'अहमेक एवास्मि'-ऐसी
भावनासे भावित अन्तःकरणवाला मनुष्य, सभी प्रकारके बन्धनोंको छोड कर प्रबजित हो जाता है और अचेल वह मुनि अवमोदरिकासे ही रहा करता है।
२८४ ७ चतुर्थ सूत्रका अवतरण, चतुर्थ सूत्र और छाया ।
२८५ ८ ऐसे अवमोदरिकायुक्त मुनि, धर्मानभिज्ञ मनुष्योंद्वारा
विविध प्रकारसे अपमानित होता हुआ भी उन अपमानोंको समतापूर्वक सहता हुआ विचारता है, और वह सभी परीषहोंको समतापूर्वक सहता है।
२८५-२८७ पञ्चम मूत्र और छाया। १० सम्यग्दृष्टि मुनि परीषहप्रयुक्त सभी दुश्चिन्ताओंका परित्याग कर परीषहोंको सहे।
२८७ षष्ठ सूत्र और छाया ।
२८७ १२ प्रव्रज्याको किसो दुष्परिस्थितिमें नहीं त्यागता, ऐसा मुनि । ही निर्ग्रन्थ है।
२८७-२८८ १३ सप्तम सूत्र और छाया।
२८८ १४ 'जिनागमके अनुसार ही जिनधर्मका पालन करना चाहिये।
यही तीर्थंकरोंका उत्तम उपदेश मनुष्योंके लिये है। १५ आठवां मूत्र और छाया।
२८९ कर्मधूननके उपाय इस संयममें संलग्न हो कर, अष्टविध कर्मको खपाते हुए विचरे । सभेद कर्मोंको जान कर मनुष्य,
उन कर्मों को, श्रमणधर्मका आराधन करके खपाता है। २८९ १७ नवम सूत्रका अवतरण, नवम सूत्र और छाया । २८९-२९० १८ इस जिनशासनमें रह कर जिन्होंने कर्मबन्धको शिथिल कर
दिया है ऐसे कितनेक मुनि एकाकिविहार प्रतिमाधारी होते हैं, उन्हें अनेक प्रकारके परीपह प्राप्त होते हैं, उन परीषहोंको वे धीर मुनि समतापूर्वक सहे।
२९०-२९३ ॥ इति द्वितीय उद्देश ॥
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श्री. मायाग सूत्र : 3