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पृष्ठाङ्क ५ कोई कोई एकाकि-विहारी मुनि, गृहस्थोंसे शिक्षावचनद्वारा
उपदिष्ट होनेपर भी कुपित हो जाता है। ऐसा अभिमानी मुनि महामोहसे युक्त होता है । इसको विविध प्रकारके परीषहोपसर्गजनित वेदनाओंका अनुभव करना पडता है, इसलिये विवेकी मुनिको ऐसा नहीं होना चाहिये। उसे तो भगवान के कथनानुसार गुरुकी आज्ञामें रहते हुए सावधानताके साथ विहार करना चाहिये।
१२६-१३२ ६ तृतीय सूत्र और छाया।
१३३ ७ आचार्यके आज्ञानुसार चलनेवाला मुनि गमनागमनादि
क्रियायें शास्त्रोक्त रीति के अनुसार करता हुआ गुरुकुलमें निवास करे । कभी कभी मुनिगुणोंसे युक्त मुनिके द्वारा भी द्विन्द्रियादि प्राणियोंकी विराधना हो जाती है, परन्तु उनके वह विराधनाजनित कर्म उसी भवमें क्षीण हो जाते हैं, क्यों कि अप्रमादपूर्वक उन कर्मों के क्षपणार्थ प्रायश्चित्त करता है।
१३३-१३८ ८ चतुर्थ सूत्रका अवतरण, चतुर्थ सूत्र और छाया। १३९-१४० ९ ऐसे मुनिकी दृष्टि और ज्ञान विशाल होता है । ये सर्वदा
ईर्यासमिति आदिसे युक्त होता है। वह स्त्री आदिके भोगोंकी निरर्थकतासे पूर्ण परिचित होता है । वह स्त्री विषयक वासना को विविध उपायोंसे दूर करता है। ऐसा मुनि स्त्रियोंसे उनके घर सम्बन्धी कुछ भी नहीं पूछता, स्त्रियोंसे मेल-जोल बढानेकी कभी भी चेष्टा नहीं करता । यह सर्वदा वाग्गुप्त, अध्यात्मसंवृत हो कर पापोंसे सदा दूर रहता है। हे शिष्यों ! इस प्रकारके मुनिधर्मका पालन करो। १४०-१४९
॥ इति चतुर्थ उद्देशः ॥
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૩