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आचारागसूत्रे यद्वा-'आरिएहिं' इति मूले सप्तम्यर्थे तृतीया, तेनाऽऽर्येष्वितिच्छाया; आर्येषु देशभाषाचारित्रार्येषु, उपलक्षणादनार्येषु च धर्मः वीतरागेण समतया-समभावेन प्रवेदितः-सकलजीवोपकाराय सदृशनया प्रवर्तकत्वात्तेषाम् , " जहा पुण्णस्स कथइ तहा तुच्छस्स कत्थइ ” इत्यादिवचनात् , अथवा'समियाए ' इति मूलस्य शमितयेतिच्छाया, ततश्च 'शमितया शमी-इन्द्रियनो
उनका यह कथन है कि चाहे कोई भुजाओं में चंदनका लेप करे अथवा तलवार या कुल्हाडी से काटे, कोई उनकी स्तुति करे या निंदा करे, तो भी महर्षि वहां पर समभाववाले ही होते हैं।
अथवा--मूल सूत्र में “आरिएहिं " ऐसा पद है। जिसकी संस्कृत-छाया-पहिले “आर्यः" ऐसी की है। परन्तु जब “आरिएहिं" इस पद में सप्तमी विभक्ति के अर्थ में तृतीया विभक्ति मानेंगे तब इसकी छाया " आर्येषु ” होगी। उस अवस्था में ऐसा इसका अर्थ होगा कि देशार्य, भाषार्य और चारित्रार्यों में तथा उपलक्षण से अनार्यों में भी वीतरागप्रभुने समभावसे धर्मका उपदेश दिया है। क्यों कि वीतराग प्रभुकी प्रवृत्ति समस्त जीवोंपर उपकार करने के लिये एकसी होती है । "जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कथइ" ऐसा आगम का वचन है।
'समियाए' इस मूल पदकी संस्कृत-छाया 'शमितया' होती है। इन्द्रिय और मनका जो निग्रह करता है वह शमी है, शमीका भाव
આને ભાવ છે કે ભલે કઈ ભુજાઓમાં ચંદનનો લેપ કરે અથવા તલવાર અથવા કુહાડીથી તેને કાપે, કેઈ એની સ્તુતિ કરે અથવા નિંદા કરે, તો પણ મહર્ષિ આમાં સમભાવ દાખવનાર જ રહે છે.
अथवा-भूण सूत्रमा “ आरिएहिं" मेवो ५४ छ. रेनी संत छाया पडi " आर्यैः " म श छ.
परंतुल्यारे 'आरिएहिं' मा पहभां सभी विमतिना सभा तृतीया विमति भानवामा मावशे, त्यारे तेनी छाया " आर्येषु" मेवी थशे. मावा અવસ્થામાં આવે અને અર્થ થશે કે દેશાર્ય, ભાષાર્ય અને ચારિત્રામાં, તથા ઉપલક્ષણથી અનાર્યોમાં પણ વીતરાગ પ્રભુએ સમભાવથી ધર્મને ઉપદેશ આપે છે. કારણ કે વીતરાગ પ્રભુની પ્રવૃત્તિ સમસ્ત જીવે ઉપર ઉપકાર કરવા માટે मेधारी डाय छे. भागमवयन छ-" जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ"
“समियाए” २॥ भूटानी संस्कृत छाय॥ “शमितया" थाय छ. छन्द्रिय અને મન ઉપર જે કાબુ મેળવે છે એ શમી છે, શમીનો ભાવ શમિતા છે.
श्री. साया
सूत्र : 3