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________________ प्रथमशाखा-आर्तध्यान. १७ अखंड पुरे पुंन्य पोते हुये विन तो. इष्ट वस्तु की प्राप्ती होना; और स्थिर रहना होही नहीं सक्ता हैं; जो अप्राप्ती से, या प्राप्त हो के नाश होनेसे, उस वस्तुके लिये झुर २ के मरते हैं; उनका कुच्छभी कार्य न होता हैं. उलटे, नमीराज ऋषिके फरमाये प्रमाणें “कामे पत्थ व माणा, अकामा जंति दुग्गई” अर्थात् अप्राप्त हुयेअनमिले कामभोगोंकी प्रार्थना (वांच्छा) करता हुवा, कामभोग विन भोगवेइ, वो मरके दुर्गती ( खराब गति नर्क तिर्यांचा दी ) में जाता हैं. और कदी किंचित् पुन्योदयसे मनुष्य गति पाया तो दुःखी, दरिद्री, हीन, दीन होवे; और जो कदापी, देवता हो जाय तो * अभोगीया, देव हो सदा स्वामीके हुकमाधीन रहके अनेक कष्ट भो गते हैं. मालककी खुशी में अपनी खुशी मना नी पडती हैं. भोगांतराय कर्मोदय, प्राप्त हुये पदार्थोंका भी भोग न ले सक्ता हैं; अन्यके भोग *नोकर देव श्वामीके लिये विमाण बणावें, या उठावें, शंन्याके देवअश्वादि पसूका रूप बनाके खारी देवें सो अभोगीया देव.
SR No.006299
Book TitleDhyan Kalptaru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherKundanmal Ghummarmal Seth
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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